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राष्ट्रपति द्वारा उच्चतम न्यायालय को चौदह प्रश्नों का राष्ट्रपतीय संदर्भ (Presidential Reference)

राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने 13 मई, 2025 को संविधान के अनुच्छेद 143(1) के अंतर्गत कुछ सांविधानिक प्रश्नों पर उच्चतम न्यायालय से सलाहकारी राय मांगी। संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत प्रेषित एक संदर्भ में 14 प्रश्न पूछे गए थे, जिनका उद्देश्य संविधान के अनुच्छेद 200 और 201 के तहत राज्य विधेयकों को मंजूरी देने की प्रक्रिया में राष्ट्रपति और राज्यपालों की शक्तियों तथा समय-सीमा से संबंधित विधिक ढांचे पर स्पष्टीकरण मांगना था।

राष्ट्रपति द्वारा यह संदर्भ उच्चतम न्यायालय द्वारा 8 अप्रैल को तमिलनाडु राज्य बनाम तमिलनाडु के राज्यपाल के मामले में दिए गए निर्णय के पश्चात प्रेषित किया गया, जिसमें न्यायालय ने राष्ट्रपति एवं राज्यपालों के लिए राज्य विधेयकों पर कार्रवाई करने की स्पष्ट समय-सीमा निर्धारित की थी। उक्त निर्णय में न्यायालय ने राज्य विधान सभा द्वारा पारित दस विधेयकों पर राज्यपाल और राष्ट्रपति द्वारा लिए गए निर्णयों को निरस्त कर दिया था।

राष्ट्रपतीय संदर्भ में पूछे गए प्रश्नों के माध्यम से उच्चतम न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय के कई महत्वपूर्ण पहलुओं पर विचार करने हेतु उन्हें चिह्नित किया गया है। ये प्रश्न संघीय शासन प्रणाली में संतुलन, कार्यपालिका के विवेकाधिकार और न्यायिक पुनर्विलोकन जैसे जटिल मुद्दों से संबंधित हैं। पूछे गए प्रश्नों में यह शामिल है कि क्या किसी विधेयक के कानून बनने से पहले उसका न्यायिक पुनर्विलोकन किया जा सकता है या नहीं, और क्या संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत उच्चतम न्यायालय द्वारा राज्यपाल या राष्ट्रपति की सांविधानिक शक्तियों को अपास्त किया जा सकता है, सहित कई महत्वपूर्ण मुद्दे उठाए गए हैं।


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में यह पहला अवसर है कि जब भारतीय संविधान के अनुच्छेद 143(1) के अंतर्गत उच्चतम न्यायालय से राय मांगी गई है।


उच्चतम न्यायालय को भेजे गए इस राष्ट्रपतीय संदर्भ ने लगभग विवाद उत्पन्न कर दिया। एक तर्क यह है कि तमिलनाडु मामले में उच्चतम न्यायालय की पीठ ने अपने निर्णय में स्पष्ट रूप से अधिकांश प्रश्नों का उत्तर पहले ही दे दिया है। इस स्थिति में, आलोचकों का मत है कि यह संदर्भ ‘समीक्षा’ एवं ‘उपचारात्मक’ (क्यूरेटिव) प्रक्रियाओं से बचने का प्रयास प्रतीत होता है, जिन्हें आदर्शतः उच्चतम न्यायालय के निर्णयों को चुनौती देने के लिए अपनाया जाना चाहिए।

राष्ट्रपतीय संदर्भ में पूछे गए 14 प्रश्न

  1. जब संविधान के अनुच्छेद 200 के अंतर्गत कोई विधेयक राज्यपाल के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है तो उसके पास कौन-कौन से सांविधानिक विकल्प हैं?
  2. क्या भारत के संविधान के अनुच्छेद 200 के अंतर्गत राज्यपाल के समक्ष कोई विधेयक प्रस्तुत किए जाने पर, वह अपने पास उपलब्ध सभी विकल्पों का प्रयोग करने के लिए मंत्रिपरिषद द्वारा दी गई सहायता एवं सलाह मानने के लिए बाध्य है?
  3. क्या भारत के संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल द्वारा सांविधानिक विवेकाधिकार का प्रयोग न्यायोचित है?
  4. क्या भारतीय संविधान का अनुच्छेद 361, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 200 के अधीन राज्यपाल द्वारा किए गए कार्यों के संबंध में न्यायिक पुनर्विलोकन पर पूर्ण प्रतिबंध (absolute bar) लगाता है?
  5. क्या सांविधानिक रूप से विहित समय-सीमा, और राज्यपाल द्वारा शक्तियों के प्रयोग की रीति के अभाव में, संविधान के अनुच्छेद 200 के अंतर्गत राज्यपाल द्वारा प्रयोग की जाने वाली शक्तियों पर, न्यायिक आदेशों के माध्यम से समय-सीमा अधिरोपित, तथा प्रयोग की रीति निर्धारित की जा सकती है?
  6. क्या भारत के संविधान के अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति द्वारा सांविधानिक विवेकाधिकार का प्रयोग किया जाना न्यायोचित है?
  7. क्या सांविधानिक रूप से विहित समय-सीमा और राष्ट्रपति द्वारा शक्तियों के प्रयोग की रीति के अभाव में, भारत के संविधान के अनुच्छेद 201 के अधीन राष्ट्रपति द्वारा प्रयोग की जाने वाली शक्तियों पर, न्यायिक आदेशों के माध्यम से समय-सीमा अधिरोपित, और प्रयोग की रीति निर्धारित की जा सकती है?
  8. राष्ट्रपति की शक्तियों को नियंत्रित करने वाली सांविधानिक युक्ति के दृष्टिगत, क्या राष्ट्रपति को संविधान के अनुच्छेद 143 के अधीन किसी संदर्भ के माध्यम से उच्चतम न्यायालय से सलाह लेने की आवश्यकता है और क्या उस समय भी, जब राज्यपाल किसी विधेयक को राष्ट्रपति की अनुमति के लिए या अन्यथा आरक्षित रखता है, तो उच्चतम न्यायालय से परामर्श लेना आवश्यक है?
  9. क्या भारत के संविधान के अनुच्छेद 200 और अनुच्छेद 201 के अधीन क्रमशः राज्यपाल तथा राष्ट्रपति द्वारा लिए गए निर्णय, विधि के लागू होने से पूर्व के चरण में न्यायोचित हैं? क्या न्यायालयों को किसी विधेयक के विधि बनने से पूर्व, किसी भी रीति से, उसकी विषय-वस्तु पर न्यायिक निर्णय लेने की अनुमति है?
  10. क्या राष्ट्रपति/राज्यपाल की सांविधानिक शक्तियों के प्रयोग और आदेशों को भारत के संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत किसी भी रीति से प्रतिस्थापित किया जा सकता है?
  11. क्या राज्य विधान-मंडल द्वारा बनाई गई कोई विधि, संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल की स्वीकृति के बिना एक प्रवर्तित विधि बन सकती है?
  12. भारत के संविधान के अनुच्छेद 145(3) के परंतुक के तहत, क्या इस माननीय न्यायालय की किसी भी पीठ के लिए यह अनिवार्य नहीं है कि वह पहले यह विनिश्चित करे कि उसके समक्ष कार्यवाही में सम्मिलित प्रश्न ऐसी प्रकृति का है जिसमें संविधान के निर्वचन के बारे में विधि का कोई सारवान प्रश्न अंतर्वलित है और उसे न्यूनतम पांच न्यायाधीशों की किसी पीठ को संदर्भित किया जाए?
  13. क्या भारत के संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत उच्चतम न्यायालय की शक्तियां केवल प्रक्रियात्मक विधि (procedural law) तक सीमित हैं, या यह अनुच्छेद उच्चतम न्यायालय द्वारा ऐसे निदेश जारी करने/आदेश पारित करने तक विस्तारित है जो संविधान या किसी प्रवर्तित विधान में मौजूद मूलभूत अथवा प्रक्रियात्मक प्रावधानों के विपरीत या असंगत हैं?
  14. क्या संविधान केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के बीच विवादों के समाधान हेतु भारत के संविधान के अनुच्छेद 131 के तहत वाद दायर करने के अलावा उच्चतम न्यायालय की किसी अन्य अधिकारिता पर प्रतिबंध लगाता है?

अनुच्छेद 143 के बारे में

अनुच्छेद क्या कहता है: संविधान का अनुच्छेद 143 उच्चतम न्यायालय से परामर्श करने की राष्ट्रपति की शक्ति से संबंधित है। यह निर्दिष्ट करता है कि:

  1. यदि किसी समय राष्ट्रपति को प्रतीत होता है कि विधि या तथ्य का कोई ऐसा प्रश्न उत्पन्न हुआ है या उत्पन्न होने की संभावना है, जो ऐसी प्रकृति का और ऐसे व्यापक महत्व का है कि उस पर उच्चतम न्यायालय की राय प्राप्त करना समीचीन है, तो वह उस प्रश्न को विचार करने के लिए उस न्यायालय को निर्देशित कर सकेगा और वह न्यायालय, ऐसी सुनवाई के पश्चात जो वह ठीक समझता है, राष्ट्रपति को उस पर अपनी राय प्रतिवेदित कर सकेगा।
  2. राष्ट्रपति अनुच्छेद 131 (उच्चतम न्यायालय की आरंभिक अधिकारिता) के परंतुक में किसी बात के होते हुए भी, इस प्रकार के विवाद को, जो उक्त परंतुक में वर्णित है, राय देने के लिए उच्चतम न्यायालय को निर्देशित कर सकेगा और उच्चतम न्यायालय, ऐसी सुनवाई के पश्चात जो वह ठीक समझता है, राष्ट्रपति को उस पर अपनी राय प्रतिवेदित करेगा।

(अनुच्छेद 143 (2) संविधान के प्रारंभ से पूर्व की गई संधियों, समझौतों, प्रसंविदाओं या वैसी ही अन्य लिखतों से संबंधित विवादों या राज्यों के बीच या संघ और राज्यों के बीच विवादों से संबंधित है।)

इस प्रकार, अनुच्छेद 143 उच्चतम न्यायालय को सलाहकारी क्षेत्राधिकार प्रदान करता है।

संदर्भ पर विचार करने की प्रक्रिया: एक बार उच्चतम न्यायालय को संदर्भ भेजे जाने के पश्चात, न्यायालय उस पर सुनवाई करता है और फिर अपनी राय राष्ट्रपति को प्रतिवेदित करता है।

अनुच्छेद 145(3) के अनुसार, “जिस मामले में इस संविधान के निर्वचन के बारे में विधि का कोई सारवान प्रश्न अतंर्वलित है उसका विनिश्चय करने के प्रयोजन के लिए या इस संविधान के अनुच्छेद 143 के अधीन निर्देश की सुनवाई करने के प्रयोजन के लिए बैठने वाले न्यायाधीशों की न्यूनतम संख्या पांच होगी।”

इसलिए, भारत के मुख्य न्यायाधीश द्वारा गठित पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ राष्ट्रपति के संदर्भ पर विचार करती है।

अनुच्छेद 143 का विस्तार: राष्ट्रपति, अनुच्छेद 143 का हवाला देते हुए यह स्वीकार करते हैं कि उच्चतम न्यायालय की भूमिका में सांविधानिक सलाहकार की भूमिका भी शामिल है। उल्लेखनीय है कि, यद्यपि इसे ‘राष्ट्रपतीय संदर्भ’ कहा जाता है, तथापि वास्तव में ऐसे संदर्भ की पहल मंत्रिपरिषद द्वारा ही शुरू की जाती है। संविधान के अनुच्छेद 74 के अनुसार, राष्ट्रपति को मंत्रिपरिषद की सलाह से कार्य करना होता है, अतः इसका निहितार्थ है कि उच्चतम न्यायालय को प्रेषित कोई भी संदर्भ वस्तुतः मंत्रिपरिषद द्वारा ही प्रस्तावित किया जाता है। साथ ही, अनुच्छेद 74(2) के तहत उच्चतम न्यायालय को ऐसी सलाह की जांच करने की अनुमति नहीं है।

उच्चतम न्यायालय का सलाहकारी क्षेत्राधिकार राष्ट्रपति द्वारा प्रस्तुत संदर्भ में उल्लिखित विशिष्ट प्रश्नों तक ही सीमित होता है। जैसा कि केरल शिक्षा विधेयक मामले (1957) में न्यायालय द्वारा यह निर्णय दिया गया था कि वह संदर्भित विषय से बाहर नहीं जा सकता।

विधि विशेषज्ञों के अनुसार, अनुच्छेद 143 के तहत उस विधिक प्रश्न को संदर्भ के माध्यम से पुनः उच्चतम न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत नहीं किया जा सकता जिस पर न्यायालय ने पहले ही निर्णय दे दिया हो। कोई भी संदर्भ पूर्वनिर्णय की वैधता को चुनौती नहीं दे सकता। अन्य शब्दों में, न्यायालय को अपनी सलाहकारी क्षमता के अंतर्गत अपीलीय या पुनरीक्षण अधिकार प्राप्त नहीं होता; यह सिद्धांत कावेरी जल विवाद, 1992 के संदर्भ में स्पष्ट रूप से स्थापित किया गया।

अनुच्छेद 143(1) के तहत उच्चतम न्यायालय द्वारा दी गई राय न्यायिक निर्णय नहीं होती, अतः; ये सरकार पर बाध्यकारी नहीं होती। यह स्पष्ट किया गया है कि ‘परामर्श’ शब्द का तात्पर्य भी यही है कि ऐसी राय राष्ट्रपति पर बाध्यकारी नहीं है। अनुच्छेद 142, जो उच्चतम न्यायालय की डिक्रियों और आदेशों के प्रवर्तन से संबंधित है, स्पष्ट करता है कि केवल न्यायालय के आदेश ही प्रवर्तित किए जा सकते हैं। ऐसी कोई भी राय, जो न तो डिक्री है और न ही आदेश, उसे प्रवर्तित नहीं किया जा सकता। यद्यपि उच्चतम न्यायालय द्वारा दी गई राय प्रेरक होती है, तथापि इसकी अवहेलना राजनीतिक रूप से विवादास्पद हो सकती है।

अनुच्छेद 143 के खंड 1 के तहत, न्यायालय ‘समुचित कारणों से’ प्रस्तुत प्रश्नों पर राय व्यक्त करने से इनकार कर सकता है, हालांकि 1957 के केरल शिक्षा विधेयक मामले में न्यायालय ने यह स्पष्ट किया था कि यदि संदर्भ अनुच्छेद 143 के खंड 2 के तहत हो, तो उच्चतम न्यायालय के लिए संदर्भ पर विचार कर अपनी राय राष्ट्रपति को प्रतिवेदित करना अनिवार्य है। विशेष न्यायालय विधेयक, 1978 में, न्यायालय ने अपनी राय दी कि संदर्भ का उत्तर देने से इनकार करने का अधिकार केवल खंड (1) में ‘कर सकेगा’ और खंड (2) में ‘करेगा’ शब्दों के प्रयोग से उत्पन्न नहीं होता; यहां तक कि खंड (2) के अंतर्गत आने वाले मामलों में भी, यदि न्यायालय ठीक समझता है कि प्रश्न का उत्तर देना संभव नहीं है, तो संदर्भ को बिना उत्तर दिए ही वापस करना न्यायसंगत हो सकता है। साथ ही, यदि संदर्भित प्रश्न विशुद्ध रूप से राजनीतिक या सामाजिक-आर्थिक प्रकृति के हों तथा उनकी कोई सांविधानिक प्रासंगिकता न हो, तब भी न्यायालय को राय देने से इनकार करने का अधिकार है।


राष्ट्रपति की संदर्भ अधिकारिता का संवैधानिक आधार सबसे महत्वपूर्ण रूप से भारत सरकार अधिनियम, 1935 में निहित है। इस अधिनियम की धारा 213 के तहत गवर्नर-जनरल को संघीय न्यायालय से महत्वपूर्ण विधिक प्रश्नों पर परामर्श प्राप्त करने का अधिकार प्राप्त था।


राष्ट्रपतीय संदर्भों का महत्व: राष्ट्रपतीय संदर्भ की युक्ति और उच्चतम न्यायालय की सलाहकारी भूमिका यह सुनिश्चित करती हैं कि कार्यपालिका जटिल विधिक मुद्दों का समाधान कर सके; संविधान में मौजूद भ्रामक पहलुओं और अस्पष्टताओं को स्पष्ट किया जा सके; तथा शक्तियों के पृथक्करण की रक्षा की जा सके, जैसा कि न्यायालय की राय 'सलाहकारी' होती है, बाध्यकारी नहीं, इस प्रकार, कार्यपालिका के कामकाज में न्यायिक हस्तक्षेप से बचा जा सकता है, जबकि कार्यपालिका जटिल विधिक या सांविधानिक मुद्दों पर न्यायालय के विशेषज्ञ विचारों का लाभ उठा सकती है।

भारत में राष्ट्रपतीय संदर्भ (1950-2024)

स्वतंत्रता के बाद से अनुच्छेद 143 को कई बार प्रयोग में लाया गया है और पिछले 75 वर्षों में न्यायालय ने ऐसे 15 संदर्भों पर विचार किया है, जिनका विवरण नीचे प्रस्तुत किया गया है।

दिल्ली विधि अधिनियम, 1912 उच्चतम न्यायालय में राष्ट्रपतीय संदर्भ से संबंधित पहला मामला था। इसमें प्रश्न यह था कि विधायिका को अपनी विधायी शक्ति राज्य की अन्य शाखाओं को प्रत्यायोजित (सौंपने) करने का अधिकार है या नहीं। 23 मई, 1951 को सात न्यायाधीशों की पीठ ने पुष्टि की कि विधान-मंडल (यह संदर्भ संसद के लिए था) विधियों के प्रभावी क्रियान्वयन के लिए शक्तियां प्रत्यायोजित कर सकेगा, किंतु संसद में निहित विधायी शक्तियों का लघुकरण नहीं किया जाना चाहिए। साथ ही, न्यायालय ने यह भी कहा कि कोई “महत्वपूर्ण विधायी कार्य” कार्यपालिका को नहीं सौंपा जा सकता।

केरल शिक्षा विधेयक, 1958 के संदर्भ में सात न्यायाधीशों की पीठ ने कहा कि मौलिक अधिकारों और नीति निदेशक तत्वों की सामंजस्यपूर्ण संरचना तैयार की गई थी तथा अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों को संरक्षित किया गया था, किंतु ऐसे संस्थान केवल धर्म, जाति या भाषा के आधार पर किसी को भी प्रवेश से वंचित नहीं कर सकते।

बेरुबारी संघ मामले, 1960, में आठ न्यायाधीशों की पीठ ने भारत और पाकिस्तान के बीच द्विपक्षीय समझौते को लागू करने के मुद्दे पर विचार किया, जो भारतीय क्षेत्र के कुछ हिस्सों को पाकिस्तान को सौंपने से संबंधित था। प्रश्न यह था कि क्या संसद द्वारा पारित एक साधारण विधि इस समझौते को लागू करने के लिए पर्याप्त थी। उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया कि किसी देश द्वारा दूसरे देश को किसी क्षेत्र के अंतरण से संबंधित द्विपक्षीय समझौते को लागू करने हेतु संविधान के अनुच्छेद 368 के तहत सांविधानिक संशोधन आवश्यक है।

समुद्री सीमा शुल्क अधिनियम मामले में, उच्चतम न्यायालय की नौ न्यायाधीशों की पीठ ने कुछ करों के अधिरोपण से संबंधित संघ सरकार की विधायी शक्ति की जांच की। 10 मई, 1963 को, न्यायालय ने 5:4 के बहुमत से यह निर्णय दिया कि संविधान संसद को केवल राज्यों की संपत्ति पर कर लगाने से प्रतिबंधित करता है, यदि इस प्रतिबंध को सीमा शुल्क जैसे करों पर भी लागू किया जाए, तो यह केंद्र सरकार की अंतरराज्यीय व्यापार तथा विदेशी वाणिज्य को विनियमित करने की सांविधानिक शक्ति को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करेगा।

राज्य विधान-मंडलों की शक्तियों, विशेषाधिकारों और उन्मुक्तियों से संबंधित केशवसिंह मामले (1964) की सुनवाई सात न्यायाधीशों की संविधान पीठ द्वारा की गई थी, जिसमें उत्तर प्रदेश विधान सभा और राज्य के उच्च न्यायालय के बीच गतिरोध उत्पन्न हो गया था। विधान-मंडल ने केशव सिंह को विधान सभा की अवमानना के लिए दोषी करार दिया। केशव सिंह की हिरासत के पुनरीक्षण के लिए उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की गई। उच्च न्यायालय ने उसे जमानत दे दी, जिसके परिणामस्वरूप विधान सभा ने उस मामले की सुनवाई कर रहे दोनों न्यायाधीशों के विरुद्ध अवमानना की कार्यवाही शुरू करने का प्रस्ताव पारित किया। 30 सितंबर, 1964 को उच्चतम न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि उच्च न्यायालय को दोषसिद्धि की समीक्षा करने का अधिकार है, जबकि राज्य विधान-मंडल को उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के विरुद्ध अवमानना की कार्यवाही शुरू करने का कोई सांविधानिक अधिकार नहीं है। न्यायिक स्वतंत्रता की पुष्टि करते हुए न्यायालय ने विधान-मंडल की अवमानना संबंधी शक्तियों की सीमाएं स्पष्ट रूप से निर्धारित कीं।

राष्ट्रपतीय निर्वाचन मामले, 1974 में सात न्यायाधीशों की पीठ ने इस प्रश्न पर विचार किया कि क्या राष्ट्रपति के कार्यकाल की समाप्ति से उत्पन्न रिक्ति की पूर्ति हेतु निर्वाचन प्रक्रिया कार्यकाल की समाप्ति से पूर्व संपन्न की जानी चाहिए, भले ही उस समय गुजरात राज्य की विधान सभा भंग हो चुकी थी। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि राष्ट्रपति पद का निर्वाचन, राष्ट्रपति के कार्यकाल की समाप्ति से पूर्व संपन्न किया जाना चाहिए, भले ही उस समय किसी राज्य की विधान सभा भंग ही क्यों न हो गई हो। केवल उसी स्थिति में, जब नए नवनिर्वाचित राष्ट्रपति ने अभी पदभार ग्रहण नहीं किया हो, मौजूदा राष्ट्रपति, जिसका कार्यकाल समाप्त हो चुका हो, अपने पद पर बना रह सकता है।

विशेष न्यायालय विधेयक मामला, 1978 एक ऐसे विधेयक से संबंधित था, जिसमें आपातकाल की अवधि के दौरान उच्च राजनीतिक पदों पर आसीन व्यक्तियों द्वारा किए गए अपराधों से संबंधित मामलों की सुनवाई के लिए विशेष न्यायालयों की स्थापना का प्रावधान प्रस्तावित किया गया था। सात न्यायाधीशों की पीठ ने इस बात की जांच की कि क्या उक्त विधेयक के क्रियान्वयन से संविधान के किसी प्रावधान का उल्लंघन होगा। विधेयक के विभिन्न पहलुओं पर विचार करने के बाद न्यायालय ने यह मत व्यक्त किया कि कुछ सुझाए गए संशोधनों के साथ यदि इस विधेयक को लागू किया जाए, तो यह संविधान सम्मत होगा।

जम्मू और कश्मीर पुनर्वास (या स्थायी वापसी) अनुमति विधेयक, 1980 के संदर्भ में उच्चतम न्यायालय ने पांच न्यायाधीशों की पीठ के माध्यम से 6 नवंबर, 2001 को अपनी सलाहकारी राय प्रस्तुत की। इस विधेयक का उद्देश्य उन व्यक्तियों को राज्य में लौटने और स्थायी रूप से पुनर्वास की अनुमति देना था, जो 1 मार्च, 1947 से 14 मई, 1954 के मध्य जम्मू और कश्मीर से पलायन कर वर्तमान में पाकिस्तान में स्थित क्षेत्रों में चले गए थे।

यद्यपि प्रारंभ में राज्यपाल ने विधेयक को लौटा दिया था, तथापि बाद में जम्मू-कश्मीर विधान सभा ने इसे पुनः अधिनियमित किया और 1982 में इसे राज्यपाल से स्वीकृति प्राप्त हुई। इस बीच, राष्ट्रपति ने इसकी सांविधानिक वैधता पर राय प्राप्त करने हेतु इसे उच्चतम न्यायालय को संदर्भित कर दिया।

चूंकि यह विधेयक 1982 में अधिनियमित किया जा चुका था, इसलिए उच्चतम न्यायालय ने राष्ट्रपति के संदर्भ पर राय देना उचित नहीं समझा, यह कहते हुए कि यदि वह इस अधिनियम को असंवैधानिक भी माने, तो भी वह परामर्शात्मक अधिकार क्षेत्र में उसे निरस्त नहीं कर सकता। तत्पश्चात, न्यायालय ने इस विषय से संबंधित रिट याचिकाओं को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि उक्त अधिनियम कभी लागू नहीं हुआ और 2019 में जम्मू-कश्मीर के विशेष राज्य के दर्जे की समाप्ति के साथ ही यह स्वतः निरस्त हो गया।

कावेरी जल विवाद न्यायाधिकरण संदर्भ, 1991 में पांच न्यायाधीशों की पीठ ने इस प्रश्न पर विचार किया कि क्या कोई पक्ष अध्यादेश पारित कर न्यायाधिकरण के अंतरिम आदेश के क्रियान्वयन से इनकार कर सकता है। 22 नवंबर, 1991 को उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया कि इस प्रकार की एकतरफा कार्रवाई किसी भी पक्ष द्वारा नहीं की जा सकती, क्योंकि यह विधि के शासन और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत का उल्लंघन है।

यद्यपि राम जन्मभूमि–बाबरी मस्जिद मामला अब निर्णीत हो चुका है और विवाद का विषय नहीं रहा, तथापि इस संदर्भ में अयोध्या में कतिपय क्षेत्र अर्जन अधिनियम, 1993 के संबंध में राष्ट्रपति द्वारा वर्ष 1994 में उच्चतम न्यायालय को एक संदर्भ प्रेषित किया गया, जिसे पांच न्यायाधीशों की पीठ ने विचारार्थ स्वीकार किया था। न्यायालय के समक्ष यह प्रश्न प्रस्तुत किया गया था कि क्या विवादित भूमि, जहां बाबरी मस्जिद का निर्माण किया गया, पर कोई हिंदू मंदिर मौजूद था। उच्चतम न्यायालय ने इस संदर्भ प्रश्न का उत्तर देने से इनकार कर दिया; वर्ष 2024 तक यह एकमात्र ऐसा संदर्भ था जिसे न्यायालय द्वारा बिना उत्तर के वापस कर दिया गया, जो न्यायालय द्वारा अपनी विवेकाधीन शक्तियों की सीमाओं के निर्धारण का एक दुर्लभ अवसर था। न्यायालय का तर्क था कि चूंकि यह विषय उस समय न्यायालय में विचाराधीन था; अतः यदि कोई उत्तर दिया जाता तो संभावित रूप से सरकार द्वारा जारी वार्ताओं में उसकी अनुचित व्याख्या अथवा दुरुपयोग किया जा सकता था; साथ ही, संदर्भ की रचना इस प्रकार से की गई थी कि वह विवादित मामले में एक पक्ष को स्पष्ट रूप से लाभ पहुंचाने वाला प्रतीत हो रहा था।

न्यायाधीशों की नियुक्ति के संबंध में राष्ट्रपतीय संदर्भ वर्ष 1998 में उस समय प्रेषित किया गया जब सरकार, भारत के मुख्य न्यायाधीश द्वारा की गई अनुशंसा से सहमत नहीं थी। नौ न्यायाधीशों की पीठ ने स्पष्ट किया कि अन्य न्यायाधीशों की राय के साथ भारत के मुख्य न्यायाधीश द्वारा की गई अनुशंसा पर भी विचार किया जाना आवश्यक है। इसके अलावा, मुख्य न्यायाधीश के लिए परामर्श प्रक्रिया की नियमावली और प्रक्रिया का पालन करना अनिवार्य है। यदि निर्धारित मानदंडों का पालन नहीं किया गया है, तो मुख्य न्यायाधीश द्वारा की गई अनुशंसा सरकार पर बाध्यकारी नहीं होगी।

गुजरात गैस अधिनियम, 2001 के संदर्भ में राष्ट्रपति द्वारा प्रस्तुत प्रश्न यह था कि क्या प्राकृतिक गैस एवं तरलीकृत पेट्रोलियम गैस के उपयोग और वितरण को विनियमित करने वाला राज्य का अधिनियम, जो कि अपने विषयवस्तु की दृष्टि से संघ सूची के अंतर्गत आता है, संविधान सम्मत है। इस संदर्भ पर विचार करते हुए पांच न्यायाधीशों की पीठ ने 25 मार्च, 2004 को राय दी कि उक्त अधिनियम असंवैधानिक है, क्योंकि इसका विषय संघ सूची के क्षेत्राधिकार में आता है। इस प्रकार, न्यायालय के इस निर्णय ने संघ और राज्यों के बीच विधायी टकराव की स्थिति में एक महत्त्वपूर्ण मार्गदर्शक सिद्धांत की स्थापना की।

गुजरात विधान सभा निर्वाचन मामले में, वर्ष 2002 में राष्ट्रपति द्वारा प्रस्तुत संदर्भ इस बात से संबंधित था कि निर्वाचन आयोग ने राज्य विधान सभा चुनाव कराने के निर्णय में विभिन्न कारकों को संज्ञान में लिया था। राज्य सरकार आयोग की इस प्रक्रिया से असंतुष्ट थी, और परिणामस्वरूप विधान सभा को शीघ्र ही भंग कर दिया गया। यद्यपि न्यायालय ने प्रस्तुत प्रश्नों का स्पष्ट उत्तर नहीं दिया, तथापि उसने संबंधित प्रासंगिक अनुच्छेदों का गहन विश्लेषण किया। पांच न्यायाधीशों की पीठ ने यह निष्कर्ष निकाला कि अनुच्छेद 324 और अनुच्छेद 174(1) का प्रवर्तन अन्योन्याश्रित नहीं है। न्यायालय ने राय दी कि भले ही विधान सभा को शीघ्रता में भंग कर दिया गया हो, निर्वाचन आयोग छह माह की अवधि के भीतर चुनाव कराने के लिए बाध्य है।

प्राकृतिक संसाधनों के आवंटन से संबंधित मामले, जिसे प्रचलित रूप में 2जी स्पेक्ट्रम संदर्भ' कहा जाता है, में राष्ट्रपति द्वारा वर्ष 2012 में प्रस्तुत संदर्भ उच्चतम न्यायालय के उस निर्णय से संबंधित था, जिसमें अनेक 2जी अनुज्ञप्तियों को निरस्त कर दिया गया था तथा स्पेक्ट्रम तक पहुंच प्रदान करने हेतु उनकी नीलामी के माध्यम से पुनः आवंटन का निर्देश दिया गया था। उच्चतम न्यायालय की पांच न्यायाधीशों की पीठ ने इस विचार से असहमति जताई कि अनुच्छेद 143 के तहत ऐसा संदर्भ स्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि इसका उद्देश्य न्यायालय के पूर्ववर्ती निर्णय को निरस्त करना है। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि वह उस सीमा तक संदर्भ का उत्तर दे सकता है, जहां तक वह अपने निर्णय को प्रभावहीन नहीं बनाता। न्यायालय ने सभी प्रश्नों पर विचार नहीं किया और अपनी राय मुख्यतः इस प्रश्न तक सीमित रखी कि क्या प्राकृतिक संसाधनों के निष्पादन (वितरण) का एकमात्र माध्यम नीलामी ही होना चाहिए। न्यायालय ने यह राय दी कि संसाधनों के आवंटन के लिए नीलामी को सांविधानिक रूप से अनिवार्य नहीं माना गया है, किंतु जब संसाधनों का आवंटन व्यक्तियों के वाणिज्यिक उपयोग हेतु किया जाता है, तब नीलामी तथा अधिकतम राजस्व अर्जन का सिद्धांत सामान्य नियम के रूप में लागू होता है। नीलामी से विचलन केवल उन परिस्थितियों में न्यायोचित हो सकता है, जब आवंटन का उद्देश्य सामाजिक हित अथवा जनकल्याण से संबंधित हो।

The Punjab Termination of Agreement Act (पंजाब अनुबंध समापन अधिनियम), 2004 पर राष्ट्रपति द्वारा प्रस्तुत संदर्भ, पंजाब, हरियाणा और राजस्थान के बीच लंबे समय से चले आ रहे जल विवाद से संबंधित था, जिसकी जांच पांच न्यायाधीशों की एक पीठ द्वारा की गई। उच्चतम न्यायालय के समक्ष विचारार्थ मूल प्रश्न उस राज्य अधिनियम की सांविधानिक वैधता से संबद्ध था, जिसे पंजाब सरकार ने एक पूर्ववर्ती न्यायिक निर्णय को निष्प्रभावी करने के प्रयास में अधिनियमित किया था। इस अधिनियम में यह उपबंध किया गया था कि प्राकृतिक संसाधनों का अधिकतम उपयोग करने के लिए पंजाब सरकार अन्य राज्य के साथ जल साझा करने के लिए बाध्य नहीं थी। न्यायालय ने 10 नवंबर, 2016 को अपनी राय देते हुए कहा कि इस प्रकार का क्रियान्वयन असांविधानिक और अमान्य था।

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