प्रमुख क्षेत्रों में भारत की नीति
दक्षिण एशिया: दक्षिण एशिया के प्रति भारत की विदेश नीति में उल्लेखनीय परिवर्तन हुआ है। पहले यह नीति मुख्य रूप से पाकिस्तान पर केंद्रित थी, लेकिन अब इसका जोर व्यापक रूप से क्षेत्रीय स्थिरता और संपर्क (कनेक्टिविटी) को बढ़ावा देने पर है। 'पड़ोसी प्रथम' की नीति इस बदलाव को मूर्त रूप देती है, जिसका उद्देश्य उभरती सुरक्षा चिंताओं और अवसरों का समाधान करते हुए क्षेत्रीय एकीकरण को बढ़ावा देना है। प्रारंभ में, 2014 के बाद भारत ने पाकिस्तान के साथ रचनात्मक संवाद स्थापित करने का प्रयास किया, किंतु उरी और पठानकोट जैसे आतंकी हमलों तथा अनुच्छेद 370 के निरसन जैसी घटनाओं के कारण द्विपक्षीय संबंधों में तीव्र गिरावट आई। इस गिरावट ने भारत को ऐसे क्षेत्रीय सहयोग तंत्रों की ओर उन्मुख होने के लिए प्रेरित किया जो पाकिस्तान द्वारा खड़ी की जाने वाली बाधाओं से मुक्त हों, जैसे कि बिम्सटेक, जो क्षेत्रीय एकीकरण को बढ़ावा देने पर केंद्रित है। इसके साथ ही, भारत ने अतिरिक्त-क्षेत्रीय शक्तियों, विशेषकर अमेरिका, के साथ अपने क्षेत्रीय प्रभाव को सुदृढ़ किया है—जिसका प्रमाण यूएस-नेपाल मिलेनियम चैलेंज कॉर्पोरेशन (एमसीसी) समझौते और श्रीलंका के पश्चिमी कंटेनर टर्मिनल जैसी परियोजनाओं के विकास में अमेरिकी सहायता में देखा जा सकता है। भारत की क्षेत्रीय रणनीति में संपर्क पर भी जोर दिया गया है, जिसमें नेपाल के साथ 2024 का विद्युत निर्यात समझौता और बांग्लादेश के साथ विद्युत व्यापार समझौता जैसे महत्वपूर्ण समझौते शामिल हैं, जो एक प्रमुख क्षेत्रीय केंद्र (हब) के रूप में इसकी भूमिका को मजबूत करते हैं और दक्षिण एशिया में बुनियादी ढांचे और व्यापार संबंधों को बढ़ावा देते हैं। यद्यपि भारत-पाकिस्तान के संबंधों में आई गिरावट के बावजूद, भारत संवाद एवं संधियों के माध्यम से एक औपचारिक संबंध बनाए हुए है। परंतु अप्रैल 2025 में पाकिस्तान समर्थित आतंकवादी संगठन द्वारा पहलगाम में भारतीय नागरिकों (विशेषकर हिंदुओं) पर किए गए प्राणघातक आतंकी हमले के पश्चात भारत ने पाकिस्तान के प्रति कठोर कदम उठाने का फैसला किया, जिसके तहत भारत ने न केवल पाकिस्तान के साथ सभी व्यापारिक और कूटनीतिक संबंधों को स्थगित कर दिया, अपितु उसने ऐतिहासिक सिंधु जल संधि को भी निलंबित कर दिया और पाकिस्तान में आतंकी संगठनों के विरुद्ध सैन्य कार्यवाही की।
निरंतर बनी रहने वाली चुनौतियां: क्षेत्र में पक्षपातपूर्ण विदेश नीति अकसर घरेलू राजनीति, उभरते राष्ट्रवाद और चीन के बढ़ते प्रभाव से प्रेरित होती है। बांग्लादेश नेशनल पार्टी, नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी), मालदीव का प्रगतिशील गठबंधन और श्रीलंका की प्रमुख सिंहला पार्टियां—इन सभी ने भारत की क्षेत्रीय भूमिका के समक्ष चुनौतियों को अधिक जटिल बना दिया है। ये दल भारत समर्थक सरकारों की घरेलू स्तर पर आलोचना करते हैं, और राष्ट्रवादी भावनाओं को उत्तेजित कर भारतीय परियोजनाओं तथा पहलों का राजनीतिकरण करते हुए अपने मतदाता आधार को साधने का प्रयास करते हैं। भू-राजनीतिक स्तर पर, वे अपने भारत विरोधी रुख को दर्शाने और भारत के साथ संबंधों को सीमित या समाप्त करने के लिए चीन का सहारा ले रहे हैं। इसका नवीनतम उदाहरण मालदीव का है, जहां के राष्ट्रपति मोहम्मद मुईजु हैं। इसके अलावा, अगस्त 2024 में, देशव्यापी सरकार विरोधी प्रदर्शनों के बीच बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना ने इस्तीफा दे दिया और सैन्य हेलिकॉप्टर से देश छोड़ दिया। नई दिल्ली स्थित हिंडन वायुसेना अड्डे पर भारतीय राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने उनका स्वागत किया। यह कदम बांग्लादेश की अंतरिम सरकार, जिसका नेतृत्व नोबेल पुरस्कार विजेता मुहम्मद यूनुस कर रहे हैं, के साथ द्विपक्षीय संबंधों में तनाव का कारण बन गया है, जिसका परिणाम हालिया दिनों में इन दोनों देशों द्वारा एक-दूसरे पर लगाए गए व्यापारिक प्रतिबंधों के रूप में दिखाई दिया है।
इसी प्रकार, जुलाई 2022 में, श्रीलंका के राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे ने आर्थिक मंदी के कारण बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शनों के बीच इस्तीफा दे दिया और देश छोड़ दिया। हालांकि इस द्वीपीय राष्ट्र में राजनीतिक परिस्थितियों में तीव्र बदलाव आने के परिणामस्वरूप पूर्व प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे को राजनीतिक वर्ग द्वारा नया राष्ट्रपति नियुक्त किया गया। पड़ोसी देशों में व्याप्त व्यापक विरोध प्रदर्शनों और अन्य क्षेत्रीय चुनौतियों के परिप्रेक्ष्य में, भारत को उपमहाद्वीप की भू-राजनीतिक परिस्थितियों से निपटने के लिए उच्च स्तर की राजनीतिक और कूटनीतिक कुशलता की आवश्यकता होगी। रूस, अमेरिका और चीन जैसी बाह्य शक्तियों की बढ़ती भागीदारी भारत की रणनीतिक स्थिति को और अधिक जटिल बना देती है, क्योंकि यह क्षेत्रीय व्यापार और विकास साझेदारियों में विविधता लाती है तथा भारत पर क्षेत्र की निर्भरता को धीरे-धीरे कम करती है। क्षेत्र में बदलती भू-राजनीतिक गतिशीलता जैसे कि पाकिस्तान से रूस की बढ़ती निकटता, बांग्लादेश और श्रीलंका में लोकतांत्रिक मूल्यों में आई गिरावट की चिंताओं के बावजूद अमेरिका की सक्रियता, तथा मालदीव के चीन, तुर्की और अमेरिका के साथ घनिष्ठ होते संबंधों में परिलक्षित होती है। इसके अतिरिक्त, दक्षिण एशिया को प्रभावित करने वाली गंभीर जलवायु चुनौतियां—जैसे बाढ़, सूखा और जल संकट—क्षेत्रीय स्थिरता और सुरक्षा के लिए गंभीर खतरा उत्पन्न करती हैं। पर्यावरणीय प्रभावों के संदर्भ में अकसर भारत के बुनियादी ढांचे और संपर्क परियोजनाओं की जांच-पड़ताल की जाती है, जिससे यह आवश्यक हो जाता है कि भारत क्षेत्रीय जलवायु कार्रवाई और नवीकरणीय ऊर्जा व्यापार में एक सक्रिय भूमिका निभाए, ताकि वह इन चुनौतियों का समाधान कर सके और पर्यावरणीय मुद्दों से निपटने में अपनी नेतृत्वकारी भूमिका को सुदृढ़ कर सके। हालांकि भारत 1951 की शरणार्थी संधि और 1967 के प्रोटोकॉल का पक्षकार नहीं है, फिर भी वह दुनिया में सबसे अधिक शरणार्थी प्राप्त करने वाले देशों में से एक के रूप में उभरा है। इस भूमिका के साथ मानवाधिकारों की रक्षा और राष्ट्रीय हितों के बीच संतुलन बनाए रखना एक जटिल चुनौती बन गया है। वर्तमान रोहिंग्या संकट यह दर्शाता है कि भारत को शरणार्थियों से जुड़े मुद्दों के दीर्घकालिक समाधान हेतु अधिक सक्रिय और दूरदर्शी भूमिका निभाने की जरूरत है। भारत इन चुनौतियों का समाधान किस प्रकार करता है, यह मानवाधिकारों के प्रति उसकी क्षेत्रीय और वैश्विक छवि को गहराई से प्रभावित करेगा।
भारत और हिंद-प्रशांत क्षेत्र: पिछले एक दशक में, भारत की विदेश नीति तेजी से हिंद-प्रशांत क्षेत्र पर केंद्रित रही है, जो 2018 में शांगरी-ला वार्ता में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा स्पष्ट किए गए रणनीतिक बदलाव को दर्शाती है। प्रधानमंत्री मोदी का दृष्टिकोण हिंद-प्रशांत क्षेत्र को प्रगति और समृद्धि के लिए एक प्राकृतिक, मुक्त, खुले और समावेशी क्षेत्र के रूप में महत्व देता है। इस दृष्टिकोण की प्रमुख विशेषता ‘लुक ईस्ट’ नीति को ‘ऐक्ट ईस्ट’ नीति में परिवर्तित करना है, जो भारत की रणनीति में आसियान की प्रमुख भूमिका को रेखांकित करता है और दक्षिण-पूर्व एशिया के सांस्कृतिक तथा सभ्यतागत संबंधों को सुदृढ़ करता है। भारत हिंद महासागर से प्रशांत महासागर तक अपने भौगोलिक क्षेत्र का विस्तार कर रहा है, दक्षिण चीन सागर में समुद्री सुरक्षा प्रयासों को मजबूत कर रहा है तथा प्रशांत द्वीपीय समूह के देशों और ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण कोरिया, इंडोनेशिया, वियतनाम और जापान जैसे प्रमुख साझेदारों के साथ प्रगाढ़ संबंध स्थापित कर रहा है। यह व्यापक सहभागिता भारत-प्रशांत द्वीप सहयोग मंच के निर्माण से सशक्त हुआ है। इस बढ़ी हुई भागीदारी के बावजूद, भारत अपनी रणनीतिक स्वायत्तता बनाए रखते हुए पूर्ण सैन्य गठबंधनों से बचता है और साझा हितों पर आधारित रणनीतिक साझेदारी पर ध्यान केंद्रित करता है, जो विशिष्ट या आधिपत्य वाले गुटों के गठन का विरोध करता है।
निरंतर बनी रहने वाली चुनौतियां: एक प्रमुख मुद्दा बहुपक्षीय दृष्टिकोण का अभाव है; भारत-प्रशांत महासागर पहल (इंडो-पैसिफिक ओशन्स इनिशिएटिव-आईपीओआई) और हिंद महासागर रिम असोसिएशन (इंडियन ओशन रिम असोसिएशन-आईओआरए) जैसे क्षेत्रीय संस्थानों के साथ भारत की भागीदारी विकसित नहीं हुई है, जिससे बहुपक्षीय सहयोग और क्षेत्रवाद को प्रभावी रूप से बढ़ावा देने की इसकी क्षमता सीमित हो जाती है। इसके अतिरिक्त, हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भारत की रक्षा कूटनीति अभी विकास के चरण में है। हालांकि फिलीपींस को ब्रह्मोस मिसाइलों की आपूर्ति जैसी कुछ प्रगति हुई है, लेकिन भारत को अधिक संयुक्त सैन्य अभ्यास और विस्तारित रक्षा सहयोग के माध्यम से समुद्री सुरक्षा को मजबूत करने की आवश्यकता है। रणनीतिक स्थानों पर हाल ही में रक्षा सलाहकारों की नियुक्ति एक सकारात्मक कदम है, लेकिन इसमें और विस्तार की आवश्यकता है। अंततः, अपने व्यापक समुद्री पड़ोस की सुरक्षा एक बड़ी चुनौती बनी हुई है। भारत को साझेदारी को मजबूत करने तथा समुद्री और आर्थिक हितों को प्रभावी ढंग से सुरक्षित रखने के लिए लोकतांत्रिक मूल्यों और हितों को साझा करने वाले देशी (स्थानीय) और प्रवासी (गैर-स्थानीय) दोनों राज्यों (देशों) के साथ सक्रिय रूप से जुड़ना चाहिए।
मध्य पूर्व: 2014 के बाद से आर्थिक, राजनीतिक और सुरक्षा संबंधों में आई मजबूती के आधार पर भारत ने सक्रिय रूप से संयुक्त अरब अमीरात, सऊदी अरब, ओमान, कतर, इजराइल, ईरान, जॉर्डन और फिलिस्तीन सहित प्रमुख मध्य पूर्वी देशों के साथ अपने राजनयिक संबंधों का विस्तार दिया है। इन उच्चस्तरीय दौरों और व्यक्तिगत कूटनीति ने इस क्षेत्र में भारत के रणनीतिक पुनर्गठन में एक प्रमुख भूमिका निभाई है। आर्थिक सहयोग इसकी एक प्रमुख आधारशिला रहा है, जिसमें खाड़ी देशों द्वारा भारत की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण निवेश और भारत–इजराइल–अमेरिका–यूएई (I2U2) मिनीलेटरल पहल तथा भारत–मध्य पूर्व–यूरोप आर्थिक गलियारा (आईएमईसी) जैसी सहयोगी पहल शामिल हैं। इन साझेदारियों का उद्देश्य आर्थिक विकास को बढ़ावा देना और वैश्विक शासन से संबंधित चुनौतियों का समाधान करना है। सुरक्षा संबंधों में भी उल्लेखनीय प्रगति हुई है, विशेष रूप से इजराइल के साथ सैन्य और रक्षा सहयोग के क्षेत्र में, जो भारत की रक्षा प्रौद्योगिकी का एक प्रमुख आपूर्तिकर्ता है। इसके अतिरिक्त, ईरान के साथ भारत का रणनीतिक गठबंधन, जिसमें चाबहार पोर्ट जैसी परियोजनाएं शामिल हैं, उसे अफगानिस्तान और मध्य एशिया तक पहुंच प्रदान करता है, जो व्यापक क्षेत्रीय और आर्थिक उद्देश्यों को समर्थन प्रदान करता है।
निरंतर बनी रहने वाली चुनौतियां: भू-राजनीतिक अस्थिरता, जिसका उदाहरण वर्तमान में चल रहे इजराइल-हमास संघर्ष में मिलता है, ने I2U2 और आईएमईसी जैसी महत्वपूर्ण पहलों को प्रभावित किया है, जिसके परिणामस्वरूप इन परियोजनाओं को पुन: प्रचालित करने के लिए गहन कूटनीतिक प्रयासों और रणनीतिक कूटनीति की आवश्यकता उत्पन्न हुई है। इसके अतिरिक्त, ईरान और इजराइल के बीच के छद्म युद्ध (shadow war) ने क्षेत्रीय स्थिरता में अस्थिरता को जन्म दिया है, जिससे भारत के रणनीतिक हितों में जटिलताएं उत्पन्न हुई हैं, विशेष रूप से लाल सागर में हालिया नौसैनिक झड़पों ने इसके व्यापक निहितार्थ उजागर किए हैं। इसके अलावा, अमेरिका और चीन जैसी प्रमुख शक्तियों के बीच संतुलन बनाए रखने के कारण भारत की वैश्विक स्थिति लगातार जटिल होती जा रही है। ईरान के साथ मजबूत संबंध बनाए रखते हुए और क्षेत्रीय चुनौतियों का समाधान करते हुए इस बहुध्रुवीय वातावरण में आगे बढ़ना मध्य पूर्व में भारत की सफल भागीदारी के लिए महत्वपूर्ण होगा।
अफ्रीका: पिछले दशक में अफ्रीका के साथ भारत का संबंध उल्लेखनीय रूप से बेहतर हुआ है, जो ऐतिहासिक संबंधों को मजबूत करने के लिए प्रधानमंत्री की अभूतपूर्व प्रतिबद्धता से प्रेरित है। यह प्रतिबद्धता अनेक उच्चस्तरीय दौरों, 18 नए राजनयिक मिशनों की शुरुआत, और अफ्रीका-केंद्रित व्यापक नीति के कार्यान्वयन में परिलक्षित होती है। 2018 में, प्रधानमंत्री ने भारत की पहली औपचारिक “अफ्रीका नीति” शुरू की, जिसमें “अफ्रीका अफ्रीकियों के लिए” पर जोर दिया गया, जो महाद्वीप में भारत के भविष्य के संबंधों की आधारशिला है और इसका उद्देश्य द्विपक्षीय संबंधों को बढ़ाते हुए महाद्वीप के विकास में सहयोग करना है। इस सहभागिता की पराकाष्ठा सितंबर 2023 में उस समय देखने को मिली, जब G20 में भारत की अध्यक्षता के दौरान अफ्रीकी संघ (AU) को स्थायी सदस्यता प्रदान की गई। यह वैश्विक शासन में अफ्रीका की बढ़ती भूमिका के प्रति भारत की प्रतिबद्धता और समर्थन को प्रदर्शित करता है। पिछले दशक में भारत-अफ्रीका व्यापार में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है, जो वित्तीय वर्ष 2022-23 में 9.26 प्रतिशत की वृद्धि के साथ लगभग 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुंच गया है। 2018 के बाद से भारत के निर्यात में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है, जो 2021-22 में पिछले सभी आंकड़ों को पार कर गया है। यह उल्लेखनीय वृद्धि मुख्य रूप से व्यापारिक जागरूकता में वृद्धि और विशेष रूप से अफ्रीका में निर्यात को प्रोत्साहित करने के लिए भारत सरकार द्वारा प्रदान की गई वित्तीय सहायता योजनाओं के कारण हुई है। भारत ने अफ्रीका के साथ अपनी ज्ञान कूटनीति को बढ़ाते हुए जंजिबार में आईआईटी मद्रास और यूगांडा में राष्ट्रीय फोरेंसिक विज्ञान विश्वविद्यालय के परिसर की स्थापना की है। भारत ने अफ्रीका में टेलिमेडिसिन और टेलिएजुकेशन को अधिक सुलभ बनाने के लिए पैन-अफ्रीकन ई-नेटवर्क परियोजना की भी शुरुआत की है। अक्टूबर 2019 में, भारत ने ई-आरोग्य भारती नामक एक वेब-आधारित प्लेटफॉर्म लॉन्च किया, जिसका उद्देश्य चिकित्सीय शिक्षा का विस्तार करना है, जिससे अब तक 15,000 अफ्रीकी छात्र लाभान्वित हुए हैं।
भारत-अफ्रीका सुरक्षा सहयोग में भी उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। भारत अफ्रीकी देशों में सैन्यकर्मियों को नियमित प्रशिक्षण प्रदान कर रहा है तथा समुद्री सहयोग बढ़ा रहा है। अफ्रीकी देशों के लिए पहला क्षेत्रीय अभ्यास, जिसे “एफिंडेक्स” (AFINDEX) का नाम दिया गया, 2019 में पुणे में आयोजित किया गया था। पहला भारत-अफ्रीका रक्षा मंत्रियों का सम्मेलन (आईएडीएमसी) फरवरी 2020 में लखनऊ में आयोजित किया गया था, जिसने अफ्रीका के साथ भारत के रक्षा सहयोग को संस्थागत रूप प्रदान किया। भारत ने रक्षा उपकरणों के निर्माण को भी प्राथमिकता दी है। मॉरीशस, मोजाम्बिक और सेशेल्स 2017 से 2021 के बीच भारतीय हथियारों के शीर्ष तीन आयातक देशों के रूप में उभरे हैं।
निरंतर बनी रहने वाली चुनौतियां: अफ्रीका के साथ भारत की विदेश नीति कई महत्वपूर्ण चुनौतियों का सामना कर रही है। सबसे पहले, भारत की भागीदारी मुख्य रूप से द्विपक्षीय रही है, जिसमें पूरे महाद्वीप से जुड़े मुद्दों को संबोधित करने के लिए आवश्यक एकीकृत 'संपूर्ण अफ्रीका' दृष्टिकोण का अभाव है, विशेष रूप से ऐसे समय में जब अफ्रीका अफ्रीकी महाद्वीपीय मुक्त व्यापार क्षेत्र (AfCFTA) की दिशा में तेजी से आगे बढ़ रहा है। इसके लिए अफ्रीका के विभिन्न क्षेत्रों और अर्थव्यवस्थाओं के साथ जुड़ने के लिए अधिक एकीकृत रणनीति की आवश्यकता है। दूसरा, अफ्रीका की विशाल विविधता—जो विकास के विभिन्न चरणों और सांस्कृतिक संदर्भों द्वारा चिह्नित है—एकीकृत रणनीति के निर्माण को जटिल बनाती है, जिससे भारत के लिए महाद्वीप की विभिन्न आवश्यकताओं को प्रभावी रूप से पूरा करना कठिन हो जाता है। अंत में, भारत-अफ्रीका फोरम शिखर सम्मेलन का अभाव, जो अंतिम बार 2015 में आयोजित किया गया था, नए सिरे से उच्चस्तरीय वार्ता की आवश्यकता को रेखांकित करता है। अगला शिखर सम्मेलन पिछली उपलब्धियों पर आधारित हो सकता है और बदलते भू-राजनीतिक और आर्थिक परिदृश्य के अनुरूप हो सकता है, जिससे अधिक व्यापक और समन्वित दृष्टिकोण को बढ़ावा मिल सकेगा।
मध्य एशिया: 1991 में क्षेत्र के पांच गणराज्यों—कजाखस्तान, तुर्कमेनिस्तान, उज्बेकिस्तान, ताजिकिस्तान और किर्गिस्तान—के साथ कूटनीतिक संबंध स्थापित करने के बाद से मध्य एशिया के प्रति भारत की विदेश नीति में उल्लेखनीय प्रगति हुई है। 2012 में 'कनेक्ट सेंट्रल एशिया' नीति की शुरुआत मध्य एशिया के साथ संबंधों को प्रगाढ़ करने की दिशा में एक रणनीतिक पहल थी, जो इस क्षेत्र के सामरिक, आर्थिक और सांस्कृतिक दृष्टि से इसके बढ़ते महत्व को दर्शाती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में इस नीति को कनेक्टिविटी और सहयोग को बेहतर बनाने वाले प्रमुख प्रयासों के माध्यम से सशक्त किया गया है। चाबहार बंदरगाह परियोजना और अंतरराष्ट्रीय उत्तर-दक्षिण परिवहन गलियारे (आईएनएसटीसी) का पूर्वी गलियारा भारत की रणनीति का केंद्र है, जो मुंबई को मध्य एशिया से जोड़ता है और क्षेत्रीय अखंडता और संप्रभुता को कायम रखते हुए चीन की बेल्ट एंड रोड पहल (बीआरआई) का संतुलन स्थापित करने के भारत के प्रयास का समर्थन करता है।
भारत के आतंकवाद-रोधी प्रयास भी महत्वपूर्ण रहे हैं, जो राज्य प्रायोजित आतंकवाद पर मध्य एशिया की चिंताओं के अनुरूप हैं। क्षेत्रीय सहयोग, खुफिया जानकारी साझा करने और क्षमता निर्माण को बढ़ावा देने के माध्यम से, भारत ने मध्य एशियाई देशों के नेताओं के साथ अपने संबंधों को सुदृढ़ किया है, जिन्होंने अन्य मंचों की तुलना में विशेष रूप से भारत के नेतृत्व वाले संवादों को प्राथमिकता दी है। इसके अतिरिक्त, अफगानिस्तान को लेकर भारत के दृष्टिकोण—"अफगान-नेतृत्व, अफगान-स्वामित्व और अफगान-नियंत्रित" शांति प्रक्रिया को मध्य एशियाई देशों द्वारा सकारात्मक रूप में स्वीकार किया गया है। इस रुख से, बुनियादी ढांचा, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं में भारत के सहयोग के साथ मिलकर, क्षेत्रीय स्थिरता को बढ़ावा मिला है और अफगानिस्तान पर संयुक्त कार्य समूह के माध्यम से सहयोगात्मक प्रयासों को और अधिक सुदृढ़ किया गया है।
निरंतर बनी रहने वाली चुनौतियां: इस क्षेत्र में चीन के बढ़ते प्रभाव, बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) के कारण, ने चीन और मध्य एशिया के बीच व्यापार को 2015 के 24.7 बिलियन अमेरिकी डॉलर से बढ़ाकर 2022 में 70 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुंचा दिया। बुनियादी ढांचे और रक्षा बिक्री में चीन का व्यापक निवेश भारत के रणनीतिक उद्देश्यों को और जटिल बना देता है। इसके अलावा, तालिबान द्वारा अफगानिस्तान पर नियंत्रण और इस्लामिक स्टेट खुरासान प्रांत (आईएसकेपी) जैसे संगठनों की गतिविधियों से बढ़ते आतंकवाद के खतरे ने क्षेत्रीय अस्थिरता को और गंभीर बना दिया है और यह मध्य एशिया तथा भारत दोनों के लिए सुरक्षा संबंधी चिंताएं उत्पन्न करता है। कनेक्टिविटी बढ़ाने के निरंतर प्रयासों के बावजूद, भारत और मध्य एशिया के बीच व्यापार और निवेश अपेक्षाकृत कम है। आईटी, स्वास्थ्य सेवा और शिक्षा जैसे क्षेत्रों में भारत की क्षमता, चीनी प्रभुत्व को संतुलित करने और क्षेत्र में अपनी आर्थिक और रणनीतिक स्थिति को मजबूत करने के अवसर प्रदान करती है।
लैटिन अमेरिका: भारत ने लैटिन अमेरिका के प्रति अपनी विदेश नीति को महत्वपूर्ण रूप से पुन: प्रवर्तित किया है, जिसमें राजनीतिक और व्यापारिक संबंधों में उल्लेखनीय वृद्धि देखी गई है। परंपरागत रूप से, इस क्षेत्र के साथ भारत के संबंध मुख्यतः आर्थिक थे, लेकिन मोदी सरकार में इसमें एक महत्वपूर्ण बदलाव आया है। विदेश मंत्री एस. जयशंकर के गहन कूटनीतिक प्रयासों, जिनमें पैराग्वे, कोलंबिया, पनामा और डोमिनिकन गणराज्य की उच्चस्तरीय यात्राएं शामिल हैं, ने सक्रिय राजनीतिक संबंधों के एक नए युग को रेखांकित किया है। इसके अतिरिक्त लैटिन अमेरिकी देशों की ओर से पारस्परिक मंत्रिस्तरीय यात्राएं भी द्विपक्षीय संबंधों को मजबूत कर रही हैं। भारत और लैटिन अमेरिका के बीच व्यापार, जिसमें 2014 और 2020 के बीच गिरावट देखी गई थी, में महामारी के बाद मजबूत उछाल देखा गया, और 2022 तक रिकॉर्ड 50.61 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुंच गया, जो ब्राजील के साथ बढ़ते व्यापार, वैश्विक खाद्य तेल व्यापार के पुन: व्यवस्थित होने, और अमेरिकी प्रतिबंधों के कारण वेनेजुएला से तेल आयात कम होने के बावजूद, रूस-यूक्रेन युद्ध और वस्तुओं की कीमतों में हुई वृद्धि से प्रेरित था। वॉयस ऑफ ग्लोबल साउथ समिट और G20 जैसे वैश्विक मंचों के माध्यम से संवर्धित संपर्क को सुगम बनाया गया है, जिसमें अर्जेंटीना, ब्राजील और मेक्सिको जैसे प्रमुख लैटिन अमेरिकी देशों के साथ संबंधों के प्रबंधन में भारत की प्रत्यक्ष भागीदारी है, जो आर्थिक संबंधों की गहरी प्रतिबद्धता और पुनर्संरेखण को दर्शाती है।
निरंतर बनी रहने वाली चुनौतियां: दोनों पक्षों में अब भी पुरानी धारणाएं बनी हुई हैं, जहां भारतीय अकसर लैटिन अमेरिका को राजनीतिक अस्थिरता और सांस्कृतिक रूढ़ियों को पुरानी धारणाओं से जोड़कर देखते हैं, वहीं लैटिन अमेरिकी भारत की आर्थिक स्थिति और ऐतिहासिक परिस्थितियों के बारे में गलत धारणाएं रखते हैं। अधिक जानकारीपूर्ण और सूक्ष्म संबंध विकसित करने के लिए इन अवधारणात्मक अंतरालों को पाटना अनिवार्य है। वाणिज्यिक बाधाएं भी आर्थिक सहयोग में रुकावट उत्पन्न करती हैं; व्यापक मुक्त व्यापार समझौतों (एफटीए) की अनुपस्थिति व्यापार के विस्तार को सीमित करती है, जबकि चिली और मर्कोसुर जैसे मौजूदा समझौते कुछ हद तक सीमित और प्रतिबंधित हैं। हालांकि संभावित भारत-पेरू मुक्त व्यापार समझौता (एफटीए) नए अवसर प्रदान कर सकता है, लेकिन लंबे नौवहन मार्गों जैसी लॉजिस्टिक समस्याएं और सीमित वित्तपोषण के विकल्प व्यापार विस्तार में अब भी बाधा बने हुए हैं। इसके अतिरिक्त, लैटिन अमेरिका के साथ भारत के हालिया संबंध के पीछे की राजनीतिक गति भी अनिश्चित बनी हुई है। भारत की बढ़ती वैश्विक प्रतिष्ठा के बावजूद यह चिंता बनी हुई है कि घरेलू राजनीतिक प्राथमिकताएं लैटिन अमेरिका पर निरंतर ध्यान केंद्रित करने की क्षमता को प्रभावित कर सकती हैं। भारत-लैटिन अमेरिकी संबंधों का भविष्य इस बात पर निर्भर करेगा कि भारत वर्तमान राजनीतिक संबंध को बनाए रखते हुए उसे और कितना व्यापक बना पाता है।
वैश्विक व्यवस्था में भारत की विदेश नीति
संयुक्त राष्ट्र और विश्व व्यापार संगठन: भारत ने एक अधिक समावेशी वैश्विक शासन तंत्र के प्रति अपनी प्रतिबद्धता प्रदर्शित करते हुए संयुक्त राष्ट्र (यूएन) और विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के साथ अपनी भागीदारी के माध्यम से बहुपक्षवाद का मजबूती से समर्थन किया है। पिछले दशक से, भारत की विदेश नीति में मुख्यतः तीन प्रमुख प्रवृत्तियां उभरकर सामने आई हैं: बहुपक्षवाद की रक्षा करना, ग्लोबल साउथ का समर्थन करना, और गहन संस्थागत सहभागिता। 2021-22 के लिए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (यूएनएससी) के एक अस्थायी सदस्य के रूप में, भारत वैश्विक शासन में अपना प्रतिनिधित्व बढ़ाने के लिए “सुधारित बहुपक्षवाद के लिए नया अभिविन्यास” (New Orientation for a Reformed Multilateral System—NORMS) को बढ़ावा दे रहा है। भारत ने न्यायसंगत वैश्विक शासन सुधारों को आगे बढ़ाने के लिए जनवरी 2023 में वर्चुअल ग्लोबल साउथ समिट की मेजबानी की। विश्व व्यापार संगठन में, भारत ने उन पहलों का विरोध किया है जो सर्वसम्मति-आधारित निर्णय लेने की प्रक्रिया को कमजोर करती हैं, जैसे कि संयुक्त वक्तव्य पहल (जेएसआई) और विकास के लिए निवेश सुविधा समझौता। ग्लोबल साउथ की वकालत करते हुए, भारत ने पेरिस समझौते में “साझा लेकिन विभेदित जिम्मेदारियों और संबंधित क्षमताओं” (सीबीडीआर-आरसी) के सिद्धांत को स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, और वह प्लास्टिक संधि तथा वैश्विक महामारी संधि सहित पर्यावरण और स्वास्थ्य से संबंधित वैश्विक संधियों के लिए जारी वार्ताओं में समानता सुनिश्चित करने के लिए निरंतर प्रयासरत है। इसके अतिरिक्त, भारत ने संयुक्त राष्ट्र में अपनी संस्थागत उपस्थिति को महत्वपूर्ण रूप से विस्तारित किया है। भारत 23 संगठनों में विभिन्न पदों पर सक्रिय भूमिका निभा रहा है, उसने 100 मिलियन डॉलर की भारत-संयुक्त राष्ट्र विकास साझेदारी कोष की शुरुआत की है, और अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन तथा निकट पूर्व में फिलिस्तीनी शरणार्थियों के लिए संयुक्त राष्ट्र राहत और कार्य एजेंसी (यूएनआरडब्ल्यूए) जैसी पहलों का समर्थन भी किया है।
निरंतर बनी रहने वाली चुनौतियां: संयुक्त राष्ट्र और विश्व व्यापार संगठन में भारत की विदेश नीति को कई महत्वपूर्ण चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। विशेष रूप से रूस-चीन और पश्चिमी राष्ट्रों के बीच भू-राजनीतिक तनाव ने इन बहुपक्षीय संस्थानों में सुधार लाने के भारत के प्रयासों को जटिल बना दिया है। इसके अलावा, चीन के साथ भारत का सीमा विवाद और डब्ल्यूटीओ में एक विकासशील देश के रूप में चीन की स्थिति जैसे मुद्दों पर अलग-अलग दृष्टिकोण बहुपक्षीय सहयोग को और अधिक तनावपूर्ण बनाते हैं। विभाजित ग्लोबल साउथ एक और चुनौती प्रस्तुत करता है, जिसमें सदस्य देशों के बीच उल्लेखनीय मतभेद देखने को मिलते हैं, जैसे ब्राजील का अपने विकासशील देश के दर्जे से बाहर निकलना और पर्यावरण संबंधी मुद्दों—जैसे कि प्लास्टिक संधि—पर अलग-अलग दृष्टिकोण। प्लास्टिक संधि पर भारत का रुख, जो छोटे द्वीपीय विकासशील राज्यों (एसआईडीएस) के दृष्टिकोण से भिन्न है, ग्लोबल साउथ के भीतर विभिन्न हितों को एकजुट करने की कठिनाई को रेखांकित करता है। इसके अलावा, भारत को बहुपक्षीय संस्थानों के प्रति अमेरिका की बदलती प्रतिबद्धता के प्रभावों को भी संतुलित करना होगा। अमेरिका ने पूर्व में विश्व व्यापार संगठन के अपीलीय निकाय को कमजोर किया है और यूएनआरडब्ल्यूए तथा यूनेस्को जैसी संयुक्त राष्ट्र एजेंसियों को दी जाने वाली वित्तीय सहायता में कटौती की है, जिससे भारत के समक्ष अनिश्चितता की स्थिति उत्पन्न हो गई है कि भविष्य में वह अमेरिका की बहुपक्षीय भागीदारी से उत्पन्न होने वाली संभावित बाधाओं का किस प्रकार सामना करेगा।