8 जुलाई, 2024 को भारत के उच्चतम न्यायालय ने देश में दिव्यांगजनों (PwDs) का यथार्थ और सर्वसमावेशी चित्रण किए जाने के संबंध में व्यापक दिशानिर्देश जारी किए। इन दिशानिर्देशों का पालन दृश्य मीडिया के क्षेत्र में कार्य करने वाले, जैसे कि फिल्म और वृत्तचित्र बनाने वाले लोगों द्वारा किया जाना है, ताकि दिव्यांगजनों के साथ कोई भेदभाव न हो सके या उन्हें किसी निश्चित प्रकार की भूमिका में दर्शाने की कोशिश न की जा सके। यह ऐतिहासिक निर्णय दिव्यांगजनों पर रूढ़िवादिता (stereotypes) के हानिकारक प्रभाव को उजागर करता है, क्योंकि उनके साथ भेदभाव किया जाता है और वे अपने मौलिक अधिकारों का पूर्ण रूप से उपभोग नहीं कर पाते। इस निर्णय के साथ ही यह स्पष्ट हो गया है कि दिव्यांगजनों का चित्रण यथार्थ और संवेदनशील तरीके से किया जाना चाहिए। यह चित्रण को अलगाव (विरक्ति) के बजाय समावेशिता को बढ़ावा देने हेतु सक्षम बनाएगा।
भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने यह फैसला सुनाया कि “रूढ़िवादिता, गरिमा और भेदभाव-रहित व्यवहार के विपरीत है।” यह उभरती हुई अर्थव्यवस्था में न्यायपालिका की बढ़ी हुई जिम्मेदारियों को दर्शाता है। इन जिम्मेदारियों में न केवल व्यक्तियों के अधिकारों की रक्षा करना, बल्कि दिव्यागंता, मानसिक स्वास्थ्य और लैंगिक समानता जैसे जटिल मुद्दों से निपटना भी शामिल है।
पीठ के अन्य न्यायाधीशों ने यह कहा कि दिव्यांगता के उपहास (disabling humour) और हंसने पर विवश कर देने वाले हास्य (अर्थात शुद्ध परिहास—disability humour) के बीच स्पष्ट अंतर किया जाना चाहिए। दिव्यांगता का उपहास दिव्यांगजनों को अपमानित करता है और उनकी दिव्यांगता को नीचा दिखाता है। इसके विपरीत, शुद्ध परिहास विकलांगता के प्रति पारंपरिक विचारों को चुनौती देते हुए उन पर पुनर्विचार करने की प्रेरणा देता है। यह आम लोगों को दिव्यांगता के बारे में अधिक स्पष्ट और बेहतर समझ प्रदान करता है।
दिव्यांगजनों के चित्रण के लिए दिशानिर्देशों की आवश्यकता
इससे पहले सोनी पिक्चर्स की फिल्म आंख मिचौली में दिव्यांग व्यक्तियों को असंवेदनशील तरीके से चित्रित किए जाने के कारण, फिल्म निर्माताओं के खिलाफ उच्चतम न्यायालय में एक याचिका दायर की गई थी। याचिकाकर्ता ने उच्चतम न्यायालय से दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार स्पष्ट दिशानिर्देश तैयार करने का अनुरोध किया। याचिकाकर्ता ने उक्त फिल्म के कुछ हिस्सों को हटाने की भी अपील की थी, जिसके बाद उच्चतम न्यायालय ने दिशानिर्देश जारी किए। फिल्म और धारावाहिक निर्माताओं को दृश्य मीडिया में दिव्यांगजनों का चित्रण करते समय इन दिशानिर्देशों का पालन करना होगा। न्यायालय ने कहा कि फिल्म निर्माता की रचनात्मक स्वतंत्रता में उन लोगों का मजाक उड़ाने, उन्हें रूढ़िबद्ध करने, गलत तरीके से प्रस्तुत करने या अपमानित करने की स्वतंत्रता शामिल नहीं हो सकती, जो पहले से ही हाशिए पर हैं। उच्चतम न्यायालय का यह निर्णय दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम, 2016 के प्रमुख उद्देश्यों के अनुरूप है। इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य दिव्यांगजनों के अधिकारों की रक्षा तथा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उनकी गरिमा सुनिश्चित करते हुए उनका उत्थान करना है।
दिव्यांगजनों के संबंध में संवैधानिक उपबंध
भारत में विकलांगता अधिकारों से संबंधित प्रमुख कानून दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम, 2016 है, जो 2017 में प्रभावी हुआ। इस अधिनियम ने पूर्व के निःशक्त व्यक्ति (समान अवसर, अधिकार संरक्षण और पूर्ण भागीदारी) अधिनियम, 1995 का स्थान लिया। इसके अतिरिक्त, विकलांगता अधिकारों को विनियमित करने वाले अन्य महत्वपूर्ण कानूनों में राष्ट्रीय न्यास अधिनियम (1999), भारतीय पुनर्वास परिषद् अधिनियम (1992) और मानसिक स्वास्थ्य देख-रेख अधिनियम (2017) शामिल हैं।
2011 की जनगणना के अनुसार, देश में 2.68 करोड़ दिव्यांग व्यक्ति हैं, जो कुल जनसंख्या का 2.21 प्रतिशत है।
दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम, 2016 की कुछ प्रमुख विशेषताएं इस प्रकार हैं:
- यह अधिनियम दिव्यांगजनों के अधिकारों से संबंधित कानूनों और विधानों को निर्दिष्ट करता है।
- अधिनियम में 21 प्रकार की दिव्यांगताओं के लिए नियम परिभाषित किए गए हैं। अधिनियम के तहत निर्दिष्ट दिव्यंगताओं में दृष्टिहीनता, दृष्टिबाधिता, कुष्ठ रोग मुक्त व्यक्ति, श्रवण विकार/दोष (बहरापन और कम सुनाई देना), गतिविषयक दिव्यांगता, बौनापन, बौद्धिक दिव्यांगता, मानसिक रुग्णता, स्वपरायणता स्पेक्ट्रम विकार (autism spectrum disorder) सेरेब्रल पाल्सी, मांसपेशियों की दुर्बलता, चिरकारी तंत्रिका दशाएं विनिर्दिष्ट विद्या दिव्यांगता (specific learning disabilities) स्केलेरोसिस, वाक् और भाषा संबंधी दिव्यांगता, थैलेसीमिया, हीमोफीलिया, सिकल सेल रोग, बधिरता सहित बहु दिव्यांगता, तेजाबी आक्रमण से पीड़ित (acid attack victims) और पार्किंसन रोग शामिल हैं।
- सरकारी नौकरियों में लगभग 4 प्रतिशत पद दिव्यांगजनों के लिए आरक्षित किए गए हैं। जनवरी 2021 में, सरकार द्वारा लगभग 3,566 पदों, जिन्हें दिव्यांगजनों के लिए उपयुक्त माना गया, को अधिसूचित किया गया था।
- सरकारी या सरकारी सहायता प्राप्त उच्च शिक्षण संस्थानों में कुल सीटों में से लगभग 5 प्रतिशत सीटें दिव्यांग विद्यार्थियों के लिए आरक्षित की गई हैं।
- सरकार द्वारा निर्मित अनुकूल वातावरण की सहायता से दिव्यांगजन अनुकूलित वातावरण, परिवहन प्रणाली और सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी (आईसीटी) के पारिस्थितिक तंत्र तक आसानी से पहुंच प्राप्त कर सकेंगे।
- अधिनियम में दिव्यांगजनों को खेल, कौशल विकास और मनोरंजन में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया गया है।
- इस अधिनियम के क्रियान्वयन की निगरानी मुख्य आयुक्त (दिव्यांगजन) और राज्य आयुक्तों द्वारा नियमित रूप से और प्रभावी ढंग से की जाती है।
- इसके अतिरिक्त, दिव्यांगजनों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए, सरकार ने अधिनियम के प्रावधानों के उल्लंघन या किसी अन्य संबंधित अपराध के मामले में दंडात्मक प्रक्रिया का उपबंध किया है।
- अधिनियम में निहित मामलों का त्वरित निपटान करने के लिए सभी जिलों में विशेष न्यायालयों का गठन किया जाना है।
दिव्यांगजनों को सशक्त बनाने हेतु सरकार की कुछ महत्वपूर्ण पहलें
विशिष्ट दिव्यांगता पहचान पत्र (यूडीआईडी उप-योजना): इसका उद्देश्य पूरे भारत में दिव्यांगजनों के लिए एक राष्ट्रीय डेटाबेस स्थापित करना है। इस परियोजना के तहत, राज्य सरकारों और केंद्र शासित प्रदेशों में नामित अधिकृत चिकित्सा अधिकारियों द्वारा दिव्यांग व्यक्तियों को दिव्यांगता प्रमाणपत्र और विशिष्ट दिव्यांगता पहचान (यूडीआईडी) कार्ड जारी किए जाते हैं। परियोजना का प्राथमिक उद्देश्य दिव्यांगजनों तक सरकारी लाभ पहुंचाने की प्रक्रिया में पारदर्शिता और दक्षता बढ़ाना है।
घरौंदा (वयस्कों के लिए सामूहिक आवास योजना): यह योजना राष्ट्रीय न्यास अधिनियम के अंतर्गत, 18 वर्ष से अधिक आयु के ऑटिज्म, सेरेब्रल पाल्सी, मानसिक मंदता या बहु दिव्यांगताओं से ग्रस्त व्यक्तियों को आजीवन देखभाल और सुरक्षित आवास प्रदान करती है। इसमें दैनिक जीवन में सहयोग के लिए चिकित्सीय देखभाल और व्यावसायिक प्रशिक्षण शामिल है।
निरामय (स्वास्थ्य बीमा योजना): इसके तहत ऑटिज्म, सेरेब्रल पाल्सी, मानसिक दिव्यांगता या बहुदिव्यांगताओं से ग्रस्त दिव्यांग व्यक्तियों के लिए वैध दिव्यांगता प्रमाणपत्र और यूडीआईडी कार्ड की आवश्यकता होती है। यह बिना किसी बीमा-पूर्व चिकित्सीय जांच के विभिन्न चिकित्सा उपचारों के लिए 1 लाख रुपये तक का स्वास्थ्य बीमा कवरेज प्रदान करती है।
दिशा योजना: यह भारत में राष्ट्रीय न्यास द्वारा शुरू की गई एक पहल है, जिसका उद्देश्य 0 से 10 वर्ष आयु के दिव्यांग बच्चों के लिए प्रारंभिक बाल्यकालिक हस्तक्षेप और स्कूल के लिए तैयारियों को सुनिश्चित करना है। यह कार्यक्रम राष्ट्रीय न्यास अधिनियम के तहत मान्यता प्राप्त दिव्यांग बच्चों की सहायता करने के लिए तैयार किया गया है, जिससे विभिन्न चिकित्सा उपचारों और प्रशिक्षणों के माध्यम से उनकी विकास प्रक्रिया को आसान बनाया जा सके।
विकास (डे केयर) योजना: यह योजना 10 वर्ष या उससे अधिक आयु के उन बच्चों के लिए तैयार गई है जो ऑटिज्म, सेरेब्रल पाल्सी, मानसिक मंदता या बहु दिव्यांगताओं से ग्रस्त हैं और किसी अन्य योजना में पंजीकृत नहीं हैं। यह योजना दिन में कम से कम छह घंटे की डे केयर सेवा प्रदान करती है, जिसमें बच्चों के पारस्परिक और व्यावसायिक कौशल को विकसित करने पर विशेष ध्यान दिया जाता है। वे पंजीकृत संगठन, जो कई योजनाओं का संचालन करते हैं, उनके लिए एकीकृत रूप में दिशा-सह-विकास डे केयर योजना को लागू करने का विकल्प भी प्रस्तुत किया गया है।
समर्थ (आराम देखभाल) योजना: यह योजना दिव्यांगता अधिनियम, 1999 के अनुसार ऑटिज्म या सेरेब्रल पाल्सी से पीड़ित उन व्यक्तियों को सहायता प्रदान करती है, जो किसी अन्य योजना में पंजीकृत नहीं हैं। समर्थ केंद्र अनाथों, परित्यक्त व्यक्तियों और गरीबी रेखा से नीचे (बीपीएल) तथा निम्न आय वर्ग (एलआईजी) से संबद्ध परिवारों के दिव्यांगजनों को सामूहिक आवास की सुविधा प्रदान करते हैं, जिसमें गुणवत्तापूर्ण देखभाल और मूलभूत चिकित्सीय सेवाएं शामिल होती हैं।
सहयोगी (देखभालकर्ता प्रशिक्षण योजना): इस योजना के अंतर्गत 18 से 35 वर्ष की आयु के देखभालकर्ताओं को दिव्यांगजनों की सहायता के लिए प्राथमिक और उन्नत पाठ्यक्रमों में प्रशिक्षण दिया जाता है, जिसमें इंटर्नशिप भी शामिल है। यह योजना पूरे देश में केयर एसोसिएट सेल्स (CACs) की स्थापना करके दिव्यांगजनों की देखभाल के लिए एक कुशल कार्यबल तैयार करती है।
दीनदयाल दिव्यांगजन पुनर्वास योजना: इसके तहत प्रासंगिक अधिनियमों में पंजीकृत गैर-सरकारी संगठनों (NGOs) को आर्थिक सहायता प्रदान की जाती है, ताकि वे दिव्यांगजनों को पुनर्वास सेवाएं प्रदान कर उन्हें समाज में भागीदारी के लिए सशक्त बना सकें।
ज्ञान प्रभा योजना: यह योजना ऑटिज्म, सेरेब्रल पाल्सी, मानसिक मंदता और बहु दिव्यांगताओं वाले व्यक्तियों को शैक्षणिक सहायता प्रदान करती है। यह उन्हें शुल्क, परिवहन, किताबें और अन्य संबंधित खर्चों के लिए वित्तीय सहायता प्रदान करने के माध्यम से स्नातक और व्यावसायिक प्रशिक्षण सहित विभिन्न शैक्षणिक और व्यावसायिक पाठ्यक्रमों में आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करती है।
प्रेरणा: यह योजना दिव्यांग व्यक्तियों द्वारा निर्मित उत्पादों और सेवाओं के लिए विपणन सहायता पर केंद्रित है। इस योजना का उद्देश्य प्रदर्शनी, मेले और अन्य आयोजनों में भागीदारी के लिए वित्तीय सहायता द्वारा इन उत्पादों की बिक्री हेतु व्यावहारिक प्रक्रिया तैयार करना है। पंजीकृत संस्थाओं (ROs) को उनकी कुल बिक्री के आधार पर प्रोत्साहन राशि प्रदान की जाती है, जिससे दिव्यांग व्यक्तियों के आर्थिक सशक्तिकरण को बढ़ावा मिलता है।
दिव्यांगजनों (PwDs) के लिए कल्याणकारी योजनाएं: इन योजनाओं का उद्देश्य उनकी आर्थिक आत्मनिर्भरता और सामाजिक समावेशिता को बढ़ाना है। इन योजनाओं के अंतर्गत मुख्य सहायता के रूप में, 1,500 रुपये मासिक दिव्यांगता भत्ता, सामाजिक स्वीकृति को बढ़ावा देने के लिए 30,000 रुपये की विवाह प्रोत्साहन राशि और छात्रों के लिए 3,000 रुपये से 8,000 रुपये सालाना तक की छात्रवृत्ति शामिल है। इसके अतिरिक्त, पात्र व्यक्ति सार्वजनिक परिवहन के लिए निःशुल्क यात्रा कार्ड और बेरोजगार व्यक्ति 400 रुपये से 1,000 रुपये का मासिक बेरोजगारी भत्ता प्राप्त कर सकते हैं।
दिव्यांगजनों के लिए स्वावलंबन योजना: यह योजना भारत में दिव्यांग व्यक्तियों को वित्तीय सहायता और सहयोग प्रदान करने के लिए बनाई गई है। इस योजना के कार्यान्वयन की निगरानी राष्ट्रीय दिव्यांगजन वित्त और विकास निगम (NDFDC) द्वारा की जाती है, जो राज्य स्तरीय एजेंसियों और चयनित बैंकों के माध्यम से धन का आदान-प्रदान करता है। यह दिव्यांग व्यक्तियों के लिए पहली स्वास्थ्य बीमा योजना थी जिसमें मानसिक स्वास्थ्य स्थितियों को भी शामिल किया गया था।
इंदिरा गांधी राष्ट्रीय विकलांग पेंशन योजना: यह योजना आर्थिक रूप से वंचित वयस्क दिव्यांगों को मासिक आय के रूप में सहायता प्रदान करती है। इस योजना के तहत 18 से 79 वर्ष की आयु के उन व्यक्तियों जो 80 प्रतिशत से अधिक दिव्यांगता से ग्रस्त हैं, को 300 रुपये प्रति माह पेंशन दी जाती है, जबकि 80 वर्ष या उससे अधिक आयु के लोगों को 500 रुपये प्रति माह दिया जाता है।
एडीआईपी योजना (उपकरण और सहायक उपकरण खरीदने/लगाने के लिए दिव्यांगजनों की सहायता): एडीआईपी योजना दिव्यांगजनों के पुनर्वास को बेहतर बनाने के लिए आधुनिक और सहायक उपकरण खरीदने में सहायता करती है। यह योजना उन भारतीय नागरिकों के लिए खुली है, जिनके पास कम से कम 40 प्रतिशत दिव्यांगता का प्रमाणपत्र हो और जिनकी मासिक आय 30,000 रुपये से कम हो।
बढ़ते कदम (सामुदायिक जागरूकता, सामुदायिक संपर्क और नवोन्मेषी परियोजना): इस पहल का उद्देश्य दिव्यांगजनों के प्रति सामुदायिक जागरूकता बढ़ाना और समाज में उनके समावेश को बढ़ावा देना है। यह राष्ट्रीय न्यास अधिनियम के तहत विभिन्न हितधारकों को लक्षित करते हुए जागरूकता गतिविधियां आयोजित करने में पंजीकृत संगठनों का समर्थन करती है।
पीएम दक्ष-दिव्यांगजन सशक्तिकरण विभाग (DEPwD): यह योजना सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय द्वारा शुरू की गई है। यह डिजिटल प्लेटफॉर्म दिव्यांगजनों को पूरे भारत में निर्बाध पंजीकरण और कार्य-सूची (job listing) के माध्यम से कौशल प्रशिक्षण और रोजगार के अवसरों तक पहुंच प्रदान करता है।
सुगम्य भारत अभियान: सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय द्वारा शुरू किए गए इस अभियान का उद्देश्य भौतिक अवसंरचना, परिवहन प्रणालियों और सूचना और संचार तंत्र में सुधार करके एक सुलभ वातावरण का निर्माण करना है, जिससे दिव्यांगजनों के लिए समाज में पूरी तरह से भाग लेना सुलभ हो सके।
राष्ट्रीय विकलांग वित्त एवं विकास निगम: यह दिव्यांगजनों की आत्मनिर्भरता को बढ़ावा देने के लिए व्यावसायिक प्रशिक्षण प्रदान करने के साथ ही, उन्हें अपना व्यवसाय शुरू करने और उसके प्रबंधन के लिए वित्तीय सहायता प्रदान करता है।
उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्धारित महत्वपूर्ण दिशानिर्देश
फिल्म निर्माताओं या दृश्य मीडिया में काम करने वाले अन्य लोगों द्वारा पालन किए जाने वाले प्रमुख दिशानिर्देश इस प्रकार हैं:
- प्रयुक्त की जाने वाली भाषा के प्रति संवेदनशील होना: फिल्म निर्माताओं को दिव्यांगजनों का चित्रण करते समय फिल्म में इस्तेमाल की जाने वाली पटकथा के प्रति संवेदनशील होना चाहिए। पटकथा में दिव्यांगजनों का उल्लेख करते समय ‘स्पैस्टिक’ (spastic) या ‘अपंग’ जैसे शब्दों का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए, जैसा कि इससे संस्थागत भेदभाव को बढ़ावा मिलता है। ये शब्द दिव्यांगजनों के प्रति मन में नकारात्मक छवि बनाते हैं। इसके अलावा, लोगों के बीच भेदभावपूर्ण रवैये को बढ़ावा मिलता है।
इसके अलावा, फिल्म निर्माताओं को ऐसे शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए जो दिव्यांगता को विशेष या विचित्र रूप में प्रस्तुत करते हों। साथ ही, ऐसे शब्दों से भी बचना चाहिए जो सामाजिक बाधाओं की अनदेखी करते हैं। उदाहरण के लिए, ‘पीड़ित’, ‘सताया हुआ’, ‘शिकार बनना’ आदि शब्दों का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए। - दिव्यांगजनों की चिकित्सीय अवस्था को सही ढंग से चित्रित करना: फिल्म निर्माताओं को चाहिए कि वे दिव्यांगजनों की चिकित्सीय अवस्था को ठीक उसी तरह दर्शाएं जैसी वह वास्तव में है। इससे आम लोगों के बीच गलत जानकारी के प्रसार को रोका जा सकेगा। साथ ही, ऐसे लोगों के बारे में प्रचलित रूढ़ियों को समाप्त करने में भी मदद मिलेगी।
- व्यापक और विभिन्न प्रकार के चित्रण को बढ़ावा देना: फिल्म निर्माताओं को दिव्यांगजनों के वास्तविक जीवन के अनुभवों को चित्रित करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। उनकी विभिन्न परिस्थितियों का वर्णन उनकी क्षमतावादी और एक-आयामी विशेषताओं के रूप में करने के बजाय वास्तविक तरीके से किया जाना चाहिए। इसके अलावा, फिल्म निर्माताओं को उनके जीवन के सकारात्मक पहलुओं को भी दिखाने का प्रयास करना चाहिए, जैसे कि उनकी प्रतिभा, बुद्धिमत्ता, उपलब्धियां और समाज के लिए उनका योगदान। इससे आम लोगों में दिव्यांगता के बारे में अधिक व्यापक समझ विकसित होगी।
- अपमानजनक रूढ़िवादिता से दूर रहना: फिल्म निर्माताओं को दिव्यांगजनों की गरिमा बनाए रखनी चाहिए। उन्हें मिथकों और अफवाहों के आधार पर उपहास का पात्र नहीं बनाना चाहिए। इसके अलावा, फिल्म निर्माताओं द्वारा दिव्यांगों को असाधारण गुणों वाले ‘अपंग’ के रूप में चित्रित नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि यह दर्शाता है कि उन्हें अन्य लोगों से सम्मान पाने के लिए अपनी दिव्यांगता की भरपाई असाधारण तरीकों से करनी पड़ती है।
- निर्णय प्रक्रिया में दिव्यांगजनों की भागीदारी सुनिश्चित करना: फिल्म निर्माताओं को निम्नलिखित सिद्धांत का पालन करना चाहिए: “हमारे बिना हमारे बारे में कुछ भी नहीं।” इस सिद्धांत के अनुसार, दिव्यांगजनों से संबंधित दृश्य मीडिया की सामग्री केवल उनकी उपस्थिति में बनाई और परीक्षित की जानी चाहिए, और उसे केवल उनकी सहमति से प्रसारित किया जाना चाहिए।
- सहयोग और परामर्श सुनिश्चित करना: फिल्म निर्माताओं को दिव्यांगजनों के जीवन की मूल्यवान जानकारियां प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए, ताकि वे उन्हें उचित और सम्मानजनक तरीके से चित्रित कर सकें। इसके लिए, उन्हें दिव्यांगता से जुड़े अधिकार समूहों से संपर्क करना चाहिए और उनके साथ सहयोग करना चाहिए। इससे यह सुनिश्चित किया जा सकेगा कि दृश्य मीडिया की सामग्री दिव्यांगजनों के वास्तविक अनुभवों के अनुरूप हो।
- प्रशिक्षित और संवेदनशील बनना: सरकार को फिल्म निर्माताओं, निर्देशकों, लेखकों और अभिनेताओं के लिए प्रशिक्षण और मॉक ड्रिल (पूर्वाभ्यास) आयोजित करने चाहिए। इससे वे इस संदर्भ में जागरूक होंगे कि किस प्रकार कोई वर्णन या चित्रण आम लोगों की सोच तथा दिव्यांग व्यक्तियों के अनुभवों को प्रभावित करता है। इन प्रशिक्षण कार्यक्रमों में गरिमापूर्ण भाषा का प्रयोग, सहानुभूतिपूर्ण एवं सटीक प्रस्तुति, तथा दिव्यांगता के सामाजिक मॉडल को शामिल किया जाना चाहिए।
निष्कर्ष
उच्चतम न्यायालय का यह ऐतिहासिक निर्णय दिव्यांगजनों के कल्याण के लिए महत्वपूर्ण है जिससे दृश्य मीडिया के क्षेत्र में उनकी गरिमा और सम्मान बरकरार रखा जा सकता है। ये दिशानिर्देश दिव्यांग व्यक्तियों (PwDs) को गरिमा और समावेशिता के साथ चित्रित करने में सहायक होंगे, जैसा कि इस निर्णय में कहा गया है कि लेखकों, निर्देशकों, निर्माताओं और कलाकारों के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रमों में भाग लेना आवश्यक है, ताकि यह स्पष्ट किया जा सके कि किसी पात्र की प्रस्तुति किस प्रकार आम लोगों की धारणा और दिव्यांग व्यक्तियों के वास्तविक जीवन के अनुभवों को प्रभावित करती है। इन दिशानिर्देशों के क्रियान्वयन से समाज के दृष्टिकोण में व्यापक परिवर्तन आ सकता है, जिससे समानता के सिद्धांत का पालन सुनिश्चित हो सकेगा। इससे दिव्यांगजन दृश्य मीडिया की रचनात्मक प्रक्रिया में सक्रिय रूप से भाग ले सकेंगे। कुल मिलाकर, यह फिल्म निर्माताओं को एक न्यायपूर्ण और समावेशी युग के निर्माण में योगदान देने की प्रेरणा देगा।
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