निर्णय का महत्व
लक्षित सहायताः उप-वर्गीकरण सकारात्मक कार्रवाई उपायों के अधिक सटीक लक्ष्यीकरण की सुविधा देता है। एससी श्रेणियों के भीतर, अलग-अलग स्तरों पर सामाजिक-आर्थिक एवं शैक्षिक रूप से पिछड़े समूह हैं। विशिष्ट उप-समूहों की आवश्यकताओं को पहचानकर और उन्हें संबोधित कर, नीतियों को उन्हें अधिक प्रभावी सहायता प्रदान करने के लिए तैयार किया जा सकता है जिन्हें इनकी सबसे अधिक आवश्यकता है।
न्यायसंगत वितरणः उप-वर्गीकरण अनुसूचित जातियों के भीतर विभिन्न समूहों के बीच असमानताओं को दूर करने में मदद करता है। यह सुनिश्चित करता है कि जो समुदाय अधिक वंचित हैं उन्हें समुचित स्तर का समर्थन प्राप्त हो, इस प्रकार व्यापक अनुसूचित जाति की श्रेणियों के भीतर अधिक समानता को बढ़ावा मिलता है।
बेहतर प्रतिनिधित्व: उप-वर्गीकरण से शैक्षणिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों में अधिक यथार्थ प्रतिनिधित्व मिल सकता है। उप-समूहों के लिए विशेष कोटा बनाकर, यह सुनिश्चित किया जाता है कि एससी श्रेणियों के भीतर ऐतिहासिक रूप से हाशिए पर पड़े समुदायों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व मिले।
पहुंच में वृद्धिः उप-समूहों पर ध्यान केंद्रित करने से आरक्षण के लिए अधिक उन्नत उपागम को अपनाने की सुविधा मिलती है, जिससे संभावित रूप से उन समुदायों के लिए लाभों तक पहुंच में सुधार होता है जो अन्यथा अनुसूचित जाति की बड़ी श्रेणी के भीतर हाशिए पर रह जाते हैं। इससे यह सुनिश्चित करने में भी मदद मिलती है कि सकारात्मक कार्रवाई का लाभ उन लोगों तक पहुंचे जिन्हें सबसे अधिक आवश्यकता है।
असमानताओं को दूर करनाः उच्चतम न्यायालय का निर्णय वास्तविक समानता के महत्व पर बल देता है, जो अनुसूचित जातियों के विभिन्न उप-समूहों में सामाजिक-आर्थिक स्थितियों के बीच वास्तविक असमानताओं को दूर करने का प्रयास करता है। यह दृष्टिकोण औपचारिक समानता से आगे बढ़कर सभी समूहों के साथ, उनकी अलग-अलग परिस्थितियों के बावजूद, समान व्यवहार करता है, तथा सच्ची निष्पक्षता पर ध्यान केंद्रित करने में सफल होता है।
अनुकूलित नीतियां: उप-वर्गीकरण की अनुमति देकर, अनुसूचित जातियों के विभिन्न उप-समूहों की विशिष्ट आवश्यकताओं एवं स्थितियों को संबोधित करने के लिए नीतियां तैयार की जा सकती हैं। यह अनुकूलित दृष्टिकोण लाभों और अवसरों के अधिक न्यायसंगत वितरण के लक्ष्य को प्राप्त करने में मदद करता है।
क्षेत्रीय संयोजनः विभिन्न राज्यों में अनुसूचित जातियों की सामाजिक-आर्थिक स्थितियां एक-दूसरे से भिन्न हो सकती हैं। उप-वर्गीकरण राज्यों को स्थानीय आवश्यकताओं के अनुसार आरक्षण नीतियों को संयोजित करने की सुविधा देता है, जो यह सुनिश्चित करता है कि ऐसे हस्तक्षेप क्षेत्रीय असमानताओं को दूर करने में प्रासंगिक एवं प्रभावी हैं।
संपूर्ण भारत में कुछ प्रमुख एससी समुदाय, जो इस निर्णय से प्रभावित होंगे, में महार, जो अपनी सामाजिक-राजनीतिक सक्रियता और उच्च साक्षरता दर के लिए जाने जाते हैं और महाराष्ट्र में मातंग शामिल हैं । राजस्थान में, मेघवाल सबसे बड़ा एससी समूह है, जिसकी आबादी बीकानेर, जैसलमेर, बाड़मेर और जोधपुर में अधिक है, जबकि पूर्वी जिलों में बैरवा और जाटव प्रमुख एससी समूह हैं। राज्य में मौजूद 93 एससी समुदायों में से, ओडिशा में प्रमुख एससी समूह पान और डोम हैं। छत्तीसगढ़ का सबसे बड़ा एससी समूह, जिसमें बेलदार और रैदास शामिल हैं, संयुक्त रूप से दलित आबादी का 70 प्रतिशत से अधिक हैं। मध्य प्रदेश में बलाई समुदाय है, जो ऐतिहासिक रूप से चमड़े का काम करता है, तथा अनुसूचित जाति की आबादी का लगभग 12 प्रतिशत है। पश्चिम बंगाल के प्रमुख अनुसूचित जाति समूहों में राजबंशी, भोगता और बागड़ी शामिल हैं। गुजरात की अनुसूचित जाति की आबादी में वानकर, पारंपरिक बुनकर और रोहित समुदाय का वर्चस्व है। त्रिपुरा में दास, बाद्यकर, शब्दाकर और सबर समुदाय सामूहिक रूप से आबादी के लगभग 18 प्रतिशत का प्रतिनिधित्व करते हैं, जबकि उत्तराखंड के सबसे बड़े अनुसूचित जाति समूह हरि और बाल्मीकि हैं, और ये दोनों हिंदू प्रथाओं का पालन करते हैं।
स्थानीय समाधानः राज्य ऐसी आरक्षण नीतियों को लागू कर सकते हैं जो उनके अधिकार क्षेत्र के भीतर समुदायों द्वारा सामना की जाने वाली विशिष्ट चुनौतियों को दर्शाती हैं। यह स्थानीय निकटता विशिष्ट मुद्दों का समाधान करने और सकारात्मक कार्रवाई के उपायों के समग्र प्रभाव को बेहतर बनाने में मदद करती है।
केंद्रित विकासः उप-वर्गीकरण यह सुनिश्चित कर समावेशी विकास को बढ़ावा देता है कि एससी श्रेणियों के भीतर सभी वर्गों को सकारात्मक कार्रवाई का लाभ मिले। यह ऐसे छोटे या कम सुविधाप्राप्त उप-समूहों की हाशिए पर जाने से रोकने में मदद करता है और विकास के अवसरों में उनकी व्यापक भागीदारी सुनिश्चित करता है।
संतुलित प्रगतिः उप-वर्गीकरण विभिन्न उप-समूहों की आवश्यकताओं को पहचानकर और उनका समाधान कर, विभिन्न समुदायों की संतुलित प्रगति में योगदान देता है। यह दृष्टिकोण विकास लाभों एवं संसाधनों के अधिक न्यायसंगत वितरण का निष्पादन करने में सहायक है।
न्यायिक निरीक्षणः उच्चतम न्यायालय के निर्णय में उप-वर्गीकरण पर प्रतिबंध लगाए गए हैं, जो राज्यों के लिए अपने निर्णयों को न्यायोचित ठहराने हेतु ‘‘मात्रात्मक और प्रदर्शन योग्य डेटा’’ प्रदान करना आवश्यक बनाते हैं। यह प्रावधान सुनिश्चित करता है कि उप-वर्गीकरण राजनीतिक विचारों के बजाय वस्तुनिष्ठ मानदंडों पर आधारित हो।
नीतिगत विकासः यह निर्णय राज्यों को उप-वर्गीकरण के लिए स्पष्ट नीतियां बनाने के लिए प्रोत्साहित करता है, जिसमें आरक्षण लाभों से ‘‘क्रीमी लेयर’’ श्रेणी को बाहर रखने के लिए विभिन्न प्रक्रियाओं का सृजन करना भी शामिल हैं। यह आरक्षण नीतियों के कार्यान्वयन में पारदर्शिता एवं जवाबदेही को बढ़ावा देता है।
जोखिम और विधिक निहितार्थ
अनुच्छेद 341 का प्रयोजन: अनुच्छेद 341 की रचना अनुसूचित जातियों (एससी) द्वारा सामना किए जाने वाले सामान्य भेदभाव और पिछड़ेपन को संबोधित करने के लिए सुविचारित रूप से की गई है। इसका उद्देश्य एकीकृत वर्गीकरण को बनाए रखते हुए अनुसूचित जातियों के भीतर विभिन्न सामाजिक और शैक्षिक स्थितियों को पहचानना है। इस एकीकृत विशेष नाम का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि सभी अनुसूचित जातियां सामूहिक रूप से सुरक्षित और सकारात्मक कार्यों से लाभान्वित हों।
सजातीयता बनाम विजातीयता
सजातीयताः अनुच्छेद 341(1) प्रस्तावित करता है कि अनुसूचित जातियों के रूप में एक एकीकृत वर्गीकरण वंचनाओं या अभावों को दूर करने के लिए एक सामूहिक दृष्टिकोण को बढ़ावा देता है। यह एकीकृत स्थिति यह सुनिश्चित करती है कि सभी अनुसूचित जातियों को लगातार लाभ एवं सुरक्षा मिलती रहे।
विजातीयताः अनुसूचित जातियों के भीतर उप-वर्गों का समावेश करना इस समानता को बाधित कर सकता है। उप-वर्गीकरण से नीतियों का खंडित कार्यान्वयन हो सकता है, जो अनुच्छेद 341 में अभिप्रेत सामंजस्यपूर्ण उपागम को कमजोर कर सकता है और एक समूह के रूप में अनुसूचित जातियों को प्रदान किए जाने वाले लाभों को संभावित रूप से कम कर सकता है।
उप-वर्गीकरण की अधिकारिता
संसद की शक्ति: उप-वर्गीकरण संसद की अधिकारिता के अधीन आता है, न कि राज्यों के। अनुच्छेद 341(2) संसद को अनुसूचित जातियों की सूची में परिवर्तन करने का विशेष अधिकार प्रदान कर, राज्यों को इस सूची में परिवर्तन करने से रोकता है। राज्य विधायी प्रक्रियाओं के माध्यम से अपने विचार और चिंताएं व्यक्त कर सकते हैं या कोई परिवर्तन करने का प्रस्ताव दे सकते हैं, किंतु एकतरफा उप-वर्गीकरण लागू नहीं कर सकते।
राज्य की बाध्यताएं: राज्यों को सीधे उप-वर्गीकरण के बजाय विधायी उपायों के माध्यम से नई पहचान या मुद्दों को संबोधित करने तक सीमित किया गया है। यह अनुसूचित जोतियों के वर्गीकरण का एक सुसंगत एवं केंद्रीकृत प्रबंधन सुनिश्चित करता है।
अप्रभावी कार्यान्वयनः उप-वर्गीकरण से आरक्षण का कार्यान्वयन अप्रभावी हो सकता है। उप-वर्गों के गठन से, व्यापक अनुसूचित जातियों के लिए वांछित लाभ कम हो सकते हैं, जिसके परिणामस्वरूप विभिन्न उपसमूहों के लिए सहायता असमान या कम हो सकती है।
लाभों में कमीः अनुसूचित जाति की श्रेणी को उप-वर्गों में विभाजित करने से उनकी समग्र सहायता और लाभों में कमी आने का जोखिम है। आरक्षण नीतियों की प्रभावशीलता कम होने के फलस्वरूप अनुसूचित जाति की श्रेणी के लिए नियत सहायता पूरी तरह से संकट में आ सकती है। यदि आरक्षण के लिए अभिप्रेत एकीकृत दृष्टिकोण को कमजोर किया जाता है, तो उप-वर्गीकरण से ‘प्राण-प्रतिष्ठा का विरोध’ करने जैसी स्थिति उत्पन्न हो सकती है। इस आंतरिक वर्गीकरण के कारण लाभ कम प्रभावी या अनुचित वितरण के रूप में परिणत हो सकते हैं।
राज्य-स्तरीय पहलों में वृद्धिः यह निर्णय पंजाब, बिहार और तमिलनाडु जैसे राज्यों को अनुसूचित जाति की श्रेणियों के भीतर अलग-अलग आरक्षण लागू करने के लिए प्रोत्साहित कर सकता है। राज्य, विशिष्ट समुदाय की आवश्यकताओं की पूर्ति अधिक प्रभावी ढंग से करने के लिए नीतियों को लागू कर सकते हैं या उपश्रेणियां बना सकते हैं।
राजनीतिक प्रभाव: विभिन्न राजनीतिक संस्थाओं द्वारा राजनीतिक प्रभाव से अनुसूचित जातियों के उप-वर्गीकरण के संबंध में विशिष्ट समुदाय की मांगों एवं शिकायतों के बीच सामंजस्य स्थापित करने हेतु रणनीतिक प्रयास किए जा सकते हैं, जो संभावित रूप से चुनावी परिणामों के रूप में परिणत हो सकती है और नीति निर्देशों को प्रभावित कर सकती है। इस विषय से संबंधित कुछ संदर्भ इस प्रकार हैं:
आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में, मडिगा समुदाय यह तर्क देते हुए अनुसूचित जाति के आरक्षण के भीतर उप-वर्गीकरण की वकालत करता रहा है, कि माला समुदाय स्वतंत्रता के बाद से ही सकारात्मक कार्रवाई से असमान रूप से लाभान्वित हुआ है। उप-वर्गीकरण की इस मांग ने राजनेताओं का ध्यान आकर्षित किया है, जैसा कि मडिगा समुदाय द्वारा आयोजित एक रैली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाग लेने से स्पष्ट होता है। यह पहल सत्तारूढ़ दल द्वारा मडिगा जाति के मतदाताओं को लुभाने तथा उनकी चिंताओं को दूर करने हेतु एक रणनीतिक प्रयास प्रतीत होती है। केंद्र सरकार द्वारा मडिगा समुदाय द्वारा उठाए गए मुद्दों की समीक्षा के लिए एक पैनल का गठन किया जाना इस मामले की राजनीतिक संवेदनशीलता और इस प्रभावशाली समूह को शांत करने के प्रयास को स्पष्ट करता है।
कर्नाटक में, राजनीतिक दल अनुसूचित जाति के समुदायों की संबद्धता और अनुमानित लाभों के आधार पर उन्हें संगटित करने के प्रयास में सक्रियता से लगे हुए हैं। अनुसूचित जाति के समुदायों के बीच वैचारिक आधार पर विभाजन किया जा रहा है, जैसे कि वाम बनाम दक्षिणपंथी दलित, जो मतदाता समूहों और उनके समर्थन को प्रभावित कर सकते हैं। इस रणनीतिक भेदभाव का उद्देश्य विभिन्न अनुसूचित जातियों के उप-समूहों की विशिष्ट मांगों एवं शिकायतों के साथ पार्टी की नीतियों का समर्थन कर मतदाता आधार को मजबूत करना है।
उप-वर्गीकरण के मुद्दे पर दलील देने वाले वरिष्ठ अधिवक्ता, विजय हंसारिया, का सुझाव है कि उच्चतम न्यायालय द्वारा स्थापित सिद्धांत अनुसूचित जनजातियों (एसटी) पर भी लागू हो सकता है। इस संभावित विस्तार के दूरगामी परिणाम हो सकते हैं, जिससे एसटी समुदायों की इसी तरह की मांगों को संबोधित करने के लिए भविष्य में राजनीतिक प्रभाव और नीतियों के समायोजन को बढ़ावा मिल सकता है।
यदि अनुसूचित जनजातियों (एसटी) पर भी इसी तरह का फैसला लागू होता है, तो इससे पूरे भारत में कई प्रमुख आदिवासी समूह प्रभावित होंगे। इनमें महाराष्ट्र के विदर्भ में, गोंड और उत्तरी महाराष्ट्र में भील प्रमुख समुदाय हैं। राजस्थान के मीना, जिनका पूरे राज्य में विशेष प्रभाव है, और बांसवाड़ा एवं डूंगरपुर में भील भी प्रभावित होंगे। ओडिशा में, खोंड तथा संथाल महत्वपूर्ण हैं, जबकि छत्तीसगढ़ में, गोंड, कवार/कंवर और उरांव प्रमुख हैं। मध्य प्रदेश की प्रमुख जनजातियों में भील और गोंड शामिल हैं। पश्चिम बंगाल के भील और देबबर्मा, जो प्राचीन त्रिपुरी कबीले का हिस्सा हैं, के नाम इसी प्रकार उल्लेखनीय हैं, जैसे कि गुजरात के भील एवं हलपति। असम में, प्रभावशाली बोडो एवं कार्बी जनजातियां प्रमुख हैं, जबकि त्रिपुरा के देबबर्मा एवं उत्तराखंड के जौनसारी तथा थारू महत्वपूर्ण आदिवासी समूह हैं।
जाति जनगणना की मांग को बल मिलना: यह निर्णय सर्वसमावेशी जाति जनगणना की मांग को तेज कर सकता है, जिसमें एससी/एसटी श्रेणियों के भीतर विभिन्न समूहों के वर्गीकरण पर विस्तृत डेटा उपलब्ध कराया जा सकता है। इससे आरक्षण का अधिक सूचित और न्यायसंगत आबंटन संभव होगा।
क्रीमी लेयर के सिद्धांत पर बहसः अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के लिए क्रीमी लेयर के सिद्धांत की प्रयोज्यता पर की गई टिप्पणियों ने बहस छेड़ दी है। विशेषज्ञों का तर्क है कि ये टिप्पणियां, जो सीधे उप-वर्गीकरण के मुद्दे से संबंधित नहीं थीं, को आनुषंगिक उक्ति (ओबिटर डिक्टा) माना जाता है और वे बाध्यकारी विधिक पूर्वनिर्णय को प्रमाणित नहीं करती हैं।
आरक्षण नीतियों पर प्रभावः इस फैसले से आरक्षण नीतियों की जांच और उनमें संभावित बदलाव हो सकते हैं। इससे अनुसूचित जाति के उप-समूहों के बीच लाभों का वितरण प्रभावित हो सकता है, जिससे सामाजिक-आर्थिक स्थिति और प्रतिनिधित्व के आधार पर संभावित बदलाव हो सकते हैं।
विधिक एवं प्रशासनिक चुनौतियां: इस फैसले से कानूनी और प्रशासनिक जटिलताएं उत्पन्न हो सकती हैं। राज्यों एवं समुदायों के लिए आरक्षण संरचना पर पुनः विचार करने, सामुदायिक मूल्यांकन करने तथा प्रतिनिधित्व और लाभों से संबंधित शिकायतों का समाधान करने की आवश्यकता हो सकती है, जिससे आरक्षण के प्रबंधन की जटिलता में वृद्धि हो सकती है।
निष्कर्ष
अनुसूचित जातियों के उप-वर्गीकरण की अनुमति देने के उच्चतम न्यायालय के निर्णय के कई लाभ हैं, जिनमें आंतरिक असमानताओं को दूर करना, आरक्षण नीतियों की प्रभावशीलता को बढ़ाना और वास्तविक समानता को बढ़ावा देना शामिल है। राज्यों को विभिन्न उप-समूहों की विशिष्ट आवश्यकताओं के अनुसार अपनी सकारात्मक कार्रवाई के उपाय तैयार करने की अनुमति देने के माध्यम से, इस निर्णय का उद्देश्य विकास के लिए अधिक न्यायसंगत एवं समावेशी उपागम प्राप्त करना है। मात्रात्मक डेटा और न्यायिक निरीक्षण की आवश्यकता यह सुनिश्चित करती है कि उप-वर्गीकरण निष्पक्ष और पारदर्शी रीति से लागू किया जाए, जिससे सकारात्मक कार्रवाई नीतियों को समग्र रूप से प्रभावशील बनाने में सहायता मिले।
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