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भारत की विदेश नीति (2014—अब तक) भाग-1

किसी देश की विदेश नीति को उसकी घरेलू नीतियों के विस्तार के रूप में समझा जा सकता है, जिसे वैश्विक मंच पर अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा करने और उन्हें आगे बढ़ाने के लिए तैयार किया जाता है। भारतीय विदेश नीति हमेशा से ही कई नैतिक सिद्धांतों से निर्देशित रही है जो वैश्विक सद्भाव एवं नैतिक व्यवहार के प्रति इसकी प्रतिबद्धता को दर्शाती है।

भारतीय विदेश नीति (2014–अब तक)

मई 2014 में भारत के प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी के पद ग्रहण करने के बाद से, देश ने अपनी विदेश नीति में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन का अनुभव किया है। उनके नेतृत्व में, भारत ‘कमजोर पांच’ में से एक के बजाय विश्व की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था में परिवर्तित हो गया है, जिसकी आकांक्षाएं तीसरे स्थान पर पहुंचने की हैं। इस आर्थिक विकास ने वैश्विक मामलों में स्वयं को और अधिक दृढ़ता से प्रस्तुत करने की भारत की क्षमता में वृद्धि की है। आरंभ में सीमित अंतरराष्ट्रीय व्यवहार वाले देश के रूप में माना जाने वाला भारत पिछले एक दशक में वैश्विक स्तर पर अत्यधिक सुदृढ़ हुआ है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में अभूतपूर्व वैश्विक चुनौतियां सामने आई हैं, जिनमें कोविड-19 महामारी, रूस-यूक्रेन संघर्ष तथा मध्य पूर्व और दक्षिण चीन सागर में बढ़ता तनाव शामिल हैं। 2014 से भारत की विदेश नीति इन जटिल गतिशीलताओं को रणनीतिक दूरदर्शिता के साथ संबोधित करने के लिए विकसित हुई है। इस अवधि में हासिल कुछ प्रमुख कदम एवं उपलब्धियां निम्न प्रकार से हैं:

पड़ोस प्रथम (नेबरहुड फर्स्ट) नीतिः इस नीति ने दक्षिण एशियाई देशों और हिंद महासागरीय क्षेत्र में संबंधों को मजबूत करने पर ध्यान केंद्रित करते हुए पड़ोसी देशों के साथ भारत के संबंधों को गहरा किया है।

ऐक्ट ईस्ट नीतिः इस नीति ने दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के संगठन (आसियान) और भारत-प्रशांत क्षेत्र के अन्य प्रमुख देशों के साथ भारत के संबंधों को बढ़ावा दिया है, और यह क्षेत्रीय स्थिरता तथा विकास के लिए भारत की प्रतिबद्धता पर बल देती है।

रणनीतिक संबंधों में सुधारः भारत ने अपनी रणनीतिक स्वायत्तता कायम रखने के साथ ही व्यावहारिक साझेदारी करते हुए संयुक्त राज्य अमेरिका (यूएस) और चीन जैसी प्रमुख शक्तियों के साथ अपने संबंधों को सफलतापूर्वक संतुलित किया है। यह संतुलन रूस-यूक्रेन संघर्ष पर भारत के सूक्ष्म दृष्टिकोण और G20 जैसे बहुपक्षीय मंचों में इसके बढ़ते प्रभाव से स्पष्ट है।

अंतरराष्ट्रीय राजनीति में भागीदारीः हाल के वर्षों में, भारत ने वैश्विक शासन एवं अंतरराष्ट्रीय राजनीति से संबद्ध मुद्दों में प्रमुख भूमिका निभानी शुरू कर दी है। यह ब्रिक्स एवं G20 जैसे मंचों में इसकी सक्रिय भागीदारी से स्पष्ट है। 2023 में G20 सम्मेलन की मेजबानी करने को इस दिशा में एक महत्वपूर्ण उपलब्धि के रूप में देखा गया है।

रक्षा और सुरक्षाः इस अवधि के दौरान, भारत ने रक्षा पर विभिन्न समझौतों, संयुक्त सैन्य अभ्यासों और अन्य देशों के साथ रणनीतिक चर्चाओं में भाग लेकर अपनी रक्षा क्षमताओं को मजबूत करने तथा सुरक्षा सहयोग में वृद्धि पर ध्यान केंद्रित किया है।

आर्थिक कूटनीतिः इस नीति के अंतर्गत अपनाई गई पद्धति के एक प्रमुख घटक के रूप में आर्थिक कूटनीति में किए गए परिवर्तन शामिल हैं, जिनका उद्देश्य विदेशों में भारतीय कंपनियों को बढ़ावा देना, व्यापार को प्रोत्साहित करना, तथा विदेशी निवेश को आकर्षित करना है। मेड इन इंडिया एवं डिजिटल इंडिया जैसी प्रमुख योजनाओं को शुरू और वैश्विक स्तर पर प्रोत्साहित किया गया है।

सांस्कृतिक कूटनीतिः भारतीय विरासत एवं संस्कृति को भी महत्वपूर्ण प्रोत्साहन मिला है और इसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बढ़ावा दिया जा रहा है। अंतरराष्ट्रीय योग दिवस को वैश्विक स्तर पर मनाया जाना एवं संयुक्त अरब अमीरात के अबू धाबी में बीएपीएस हिंदू मंदिर का उद्घाटन इस दिशा में हासिल की गई कुछ प्रमुख उपलब्धियां हैं।

कुल मिलाकर, 2014 से लेकर अब तक भारत की विदेश नीति को तेजी से बदलते वैश्विक परिदृश्य के साथ इसकी अनुकूलता से चिह्नित किया गया है, जो अंतरराष्ट्रीय मामलों में एक महत्वपूर्ण भागीदार या राष्ट्र के रूप में भारत की बढ़ती भूमिका को दर्शाती है। इस अवधि की सफलताएं एवं चुनौतियां वैश्विक मंच पर भारत के रणनीतिक उत्थान को रेखांकित करती हैं।

मार्गदर्शक सिद्धांत और कारक

भारत की विदेश नीति कई प्रमुख सिद्धांतों और विशेषताओं पर आधारित है जो इसके अंतरराष्ट्रीय संबंधों को निर्देशित करते हैं:

पंचशीलः 1954 में निरूपित, पंचशील समझौता अंतरराष्ट्रीय व्यवहार के लिए पांच मुख्य सिद्धांतों, एक-दूसरे की क्षेत्रीय अखंडता एवं संप्रभुता का सम्मान करना, समानता तथा पारस्परिक लाभ, और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की रूपरेखा प्रस्तुत करता है। इन सिद्धांतों ने वैश्विक स्तर पर भारत के कूटनीतिक समझौतों के लिए एक आधारभूत संरचना के रूप में कार्य किया है।

वसुधैव कुटुम्बकम्ः इस विचार पर जोर देते हुए कि ‘विश्व एक परिवार है’, यह सिद्धांत सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास के विचार के अनुरूप है जो वैश्विक सद्भाव, पारस्परिक विकास और राष्ट्रों के बीच विश्वास की परिकल्पना को बढ़ावा देता है।

बाहरी विचारधाराओं के प्रभाव से मुक्तः भारत लोकतंत्र का समर्थन करता है, लेकिन बाहरी देशों या संस्थाओं द्वारा वैचारिक परिवर्तन या शासन परिवर्तन करने के सिद्धांत में विश्वास नहीं करता। यह अनुरोधित लोकतांत्रिक क्षमता निर्माण में सहायता करता है, जैसा कि इसे अफगानिस्तान का समर्थन तथा इराक, लीबिया और सीरिया में किए गए हस्तक्षेप का विरोध करते हुए देखा गया है।

एकतरफा प्रतिबंधों और सैन्य कार्रवाइयों से इनकारः भारत एकतरफा प्रतिबंधों और सैन्य कार्रवाइयों का विरोध करता है जब तक कि उन्हें अंतरराष्ट्रीय सहमति के माध्यम से संयुक्त राष्ट्र (यूएन) द्वारा मंजूरी नहीं दी जाती। भारत संयुक्त राष्ट्र के शांति अभियानों में महत्वपूर्ण सहयोग देता है, जिसके तहत इसने विभिन्न मिशनों में लगभग 1,95,000 सैनिकों को तैनात किया है।

हस्तक्षेप बनाम अंत:क्षेप: भारत हस्तक्षेप तथा अंत:क्षेप के बीच अंतर करता है। यद्यपि यह आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने से बचता है, तथापि जब अन्य राष्ट्रों द्वारा की गई कार्रवाइयों से इसके राष्ट्रीय हितों को खतरा होता है, तब हस्तक्षेप करता है, जैसा कि बांग्लादेश (1971), श्रीलंका (1987-90) और मालदीव (1988) में सिद्ध हुआ।

रचनात्मक सहभागिताः भारत आक्रामकता के बजाय रचनात्मक सहभागिता की वकालत करता है। यह दृष्टिकोण हिंसक टकराव के विपरीत संवाद एवं वार्ता के माध्यम से संघर्षों का समाधान करने का प्रयास करता है। उदाहरण के लिए, पहले किए गए सर्जिकल स्ट्राइक और हवाई हमले तथा हाल ही में ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के तहत पुनः किए गए हवाई हमले आतंकवाद के प्रत्युत्तर के रूप में किए गए थे।

सामरिक स्वायत्तताः साझेदारी बनाम गठबंधन: यद्यपि भारत सामरिक स्वायत्तता को महत्व देता है, तथापि यह औपचारिक सैन्य गठबंधनों की तुलना में साझेदारी को प्राथमिकता देता है। यह दृष्टिकोण भारत को अपने हितों की पूर्ति करने वाले सहयोग को बढ़ावा देते हुए स्वतंत्र निर्णय लेने की स्वतंत्रता देता है।

सागर: दृष्टिकोण: क्षेत्र में सभी के लिए सुरक्षा और विकास (सागर) नामक योजना हिंद महासागर क्षेत्र में समुद्री सहयोग के लिए भारत के रणनीतिक दृष्टिकोण का प्रतिनिधित्व करती है। इस परिकल्पना का उद्देश्य अपने समुद्री  पड़ोसियों के साथ आर्थिक और सुरक्षा सहयोग को बढ़ाना, समुद्री सुरक्षा क्षमताओं का निर्माण करना और संपूर्ण क्षेत्र में समावेशिता और सहयोग को बढ़ावा देना है।

वैश्विक सहमतिः भारत जलवायु परिवर्तन, आतंकवाद और वैश्विक शासन जैसे प्रमुख मुद्दों पर वैश्विक बहस और मतैक्य को बढ़ावा देता है। इसका उद्देश्य सामूहिक अंतरराष्ट्रीय कार्रवाई के माध्यम से इन चुनौतियों का समाधान करना है।

भारत की विदेश नीति कई प्रमुख घटकों द्वारा आकार लेती है। भौगोलिक निकटता, ऐतिहासिक संबंधों, और क्षेत्रीय सुरक्षा की गतिशीलता के कारण इसका निकटतम पड़ोस इसकी नीति को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित करता है। पड़ोसी संबंधों का प्रभावी प्रबंधन प्रमुख अंतरराष्ट्रीय संबंधों को प्रभावित करता है। इसमें पाकिस्तान के साथ आतंकवाद और क्षेत्रीय विवादों से संबंधित सुरक्षा चिंताओं को संबोधित करना, बांग्लादेश और नेपाल जैसे देशों के साथ आर्थिक और व्यापारिक संबंधों को प्रबंधित करना शामिल है, जो भारत-बांग्लादेश भूमि सीमा समझौते जैसे समझौतों से स्पष्ट होता है, और ‘पड़ोसी प्रथम’ नीति जैसी पहलों के माध्यम से क्षेत्रीय प्रभाव बनाए रखना, जो चीन की उपस्थिति का मुकाबला करते हुए भूटान, श्रीलंका और मालदीव के साथ संबंधों को मजबूत करता है। रणनीतिक साझेदारियां, जैसे कि श्रीलंका के साथ समुद्री सुरक्षा सहयोग, क्षेत्रीय चुनौतियों का समाधान करने के भारत के प्रयासों को दर्शाती हैं।

भारत के ऐतिहासिक अनुभव, जिनमें उपनिवेशवाद और अतिथि देवो भवः (अतिथि भगवान है) जैसी सांस्कृतिक परंपराओं, उसका अनाक्रामक दर्शन शामिल है, इसकी विदेश नीति को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। शीत युद्ध के दौरान ऐतिहासिक रूप से गुटनिरपेक्षता पर केंद्रित भारत, अपनी नीति को समकालीन भू-राजनीतिक वास्तविकताओं के अनुकूल बनाते हुए अब एक प्रमुख वैश्विक साझेदार के रूप में काम करता है।

भारत की विदेश नीति राष्ट्रीय हितों के साथ वैश्विक जिम्मेदारियों के बीच संतुलन स्थापित करते हुए, वैश्वीकरण, परमाणु प्रसार, आतंकवाद और पर्यावरण संबंधी चिंताओं सहित अनेक मुद्दों को संबोधित करती है। इस नीति को किसी एक संस्था या व्यक्ति द्वारा नहीं, बल्कि कई पक्षों द्वारा आकार दिया जाता है। हालांकि विदेश मंत्रालय (MEA), प्रधानमंत्री कार्यालय (PMO) और स्वयं प्रधानमंत्री की इसमें महत्वपूर्ण भूमिका होती है, लेकिन विदेश नीति का विस्तार विभिन्न राजनीतिक नेताओं और संस्थाओं के बीच सहमति को दर्शाता है, जिसमें सत्तारूढ़ दल और विपक्ष दोनों की राय शामिल होती है।

प्रमुख शक्तियों के साथ विदेशी संबंध

संयुक्त राज्य अमेरिका (यूएस): अमेरिका के साथ भारत की विदेश नीति को रक्षा और सुरक्षा सहयोग को मजबूत करने, रणनीतिक समन्वय बढ़ाने, और आर्थिक संबंधों को सुदृढ़ करने के रूप में चिह्नित किया जाता है। भारत को 2016 में प्रमुख रक्षा साझेदार और 2018 में रणनीतिक व्यापार प्राधिकरण टियर-1 का दर्जा दिए जाने से द्विपक्षीय संबंध मजबूत हुए, जिससे बिना लाइसेंस के उन्नत सैन्य प्रौद्योगिकियों तक भारत की पहुंच बढ़ी और संयुक्त अभ्यास के माध्यम से दोनों देशों के बीच अंतर-संचालन क्षमता में सुधार हुआ। अमेरिकी हितों के साथ भारत की एकरूपता “स्वतंत्र, खुले और समावेशी” हिंद-प्रशांत क्षेत्र के प्रति इसकी प्रतिबद्धता को दर्शाती है, जिसका उदाहरण चतुर्पक्षीय सुरक्षा संवाद (Quadrilateral Security Dialogue—QSD) को पुनः प्रवर्तित करना है, जिसे आमतौर पर क्वाड (QUAD) के रूप में जाना जाता है, जिसमें भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया शामिल हैं। आर्थिक रूप से, यह साझेदारी व्यापार असंतुलन और टैरिफ विवादों के बावजूद निरंतर मजबूत हो रही है, जैसा कि अमेरिका भारत के सबसे बड़े व्यापारिक साझेदारों में से एक के रूप में उभरा है। मुक्त व्यापार समझौते (एफटीए) के लिए जारी प्रयास और रक्षा क्षेत्र में महत्वपूर्ण रक्षा बिक्री दोनों देशों के बीच के मजबूत संबंधों और बहुआयामी स्वरूप को और अधिक स्पष्ट करते हैं।

निरंतर बनी रहने वाली चुनौतियां: अपेक्षाओं में असमानता के मद्देनजर तनाव उत्पन्न हो सकता है, जैसा कि गुरपतवंत सिंह पन्नू से जुड़े आरोपों एवं विवादों से स्पष्ट होता है, कि दोनों देशों के हितों को एक-दूसरे के अनुरूप बनाने के लिए निरंतर और प्रभावी संवाद अत्यंत आवश्यक है। वीजा से जुड़े मुद्दे, विशेष रूप से एच1-बी वीजा को लेकर, अब भी विवाद के महत्वपूर्ण विषय बने हुए हैं। भारत अपने पेशेवरों के लिए कोटा बढ़ाने की मांग करता रहा है, जिससे यह मुद्दा द्विपक्षीय वार्ताओं में संभावित तनाव का कारण बन सकता है। इसके अतिरिक्त, जहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के क्रमिक कार्यकाल के दौरान भारत का राजनीतिक परिदृश्य स्थिर बना हुआ है, वहीं अमेरिका में ओबामा, ट्रंप और बाइडेन तथा पुनः ट्रंप के राष्ट्रपति बनने तक अलग-अलग प्रशासनिक बदलाव हुए हैं, जिसके कारण नीतियों को जारी रखने में चुनौतियां खड़ी होती रही हैं। हाल ही में ट्रंप द्वारा दूसरी बार राष्ट्रपति बनने  के बाद भारतीय प्रवासियों के निर्वासन तथा राष्ट्रपति ट्रंप की नई व्यापार नीति के फलस्वरूप शुरू हुए टैरिफ विवाद ने सामाजिक-आर्थिक रूप से भारत और अमेरिका के संबंधों में एक नई खटास उत्पन्न की है, तथापि इन उतार-चढ़ावों के बावजूद, अमेरिकी कांग्रेस में भारत के प्रति द्विदलीय समर्थन तथा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा के कारण कूटनीतिक और राजनीतिक रूप से द्विपक्षीय संबंधों में कुछ स्थिरता बनी हुई है। भारत को उम्मीद है कि यह समर्थन भविष्य की अमेरिकी सरकारों के साथ संबंधों को स्थिर बनाए रखने और उन्हें अधिक सुदृढ़ करने में सहायक बना रहेगा। परंतु यह भी ध्यातव्य है कि एक ओर जब अमेरिका भारत के साथ अपने सामरिक और कूटनीतिक संबंधों को बढ़ावा देने का दावा करता है, तो वहीं दूसरी ओर पाकिस्तान के प्रति उसकी सहानुभूति, जैसा कि 2025 में ट्रंप प्रशासन तथा अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) द्वारा पाकिस्तान को दिया गया क्रमशः 397 मिलियन अमेरिकी डॉलर (पाकिस्तान के F-16 लड़ाकू विमानों की देख-रेख के लिए) तथा एक बिलियन अमेरिकी डॉलर (बेलआउट कार्यक्रम के हिस्से के रूप में) का ऋण, भारत द्वारा की गई आपत्तियों के बावजूद, भारत के लिए न केवल रणनीतिक दृष्टि से, बल्कि भू-राजनीतिक तथा आर्थिक दृष्टि से भी घातक हो सकता है।

चीन: प्रारंभिक रूप से, लगभग 2014 में, भारत ने सीमा संबंधी मुद्दों पर चीन के रुख को नरम करने के लिए आर्थिक सहयोग का सहारा लेने का प्रयास किया, हालांकि, 2020 में गलवान संघर्ष और वैश्विक स्तर पर आपूर्ति श्रृंखला के लचीलेपन की दिशा में बढ़ते रुझान ने भारत को एक रणनीतिक बदलाव करने की ओर अग्रसर किया। भारत ने आत्मनिर्भर भारत अभियान के माध्यम से आत्मनिर्भरता को प्राथमिकता दी, जिसके परिणामस्वरूप चीनी निवेश से इनकार कर दिया गया, कठोर नियम बनाए गए और निर्भरता को कम करने के लिए स्थानीय उत्पादन पर ध्यान केंद्रित किया गया। चीन के आक्रामक रुख, जैसे 2017 के डोकलाम गतिरोध और 2020 में गलवान संघर्ष के प्रत्युत्तर में, भारत ने समान विचारधारा वाले देशों के साथ रणनीतिक साझेदारी को मजबूत किया, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ क्वाड समूह को पुन: प्रवर्तित किया और इन देशों के साथ द्विपक्षीय संबंधों को भी सुदृढ़ किया है।

इसके अतिरिक्त, भारत ने हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अपनी भूमिका को सुदृढ़ करने के लिए क्षेत्रीय हितधारकों, आसियान और प्रशांत द्वीप देशों सहित, तक अपनी पहुंच को व्यापक रूप से बढ़ाया है। साथ ही, भारत ने सीमा क्षेत्रों में बुनियादी ढांचे के विकास और रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण स्थलों को अभेद्य बनाने को प्राथमिकता दी है। पूर्व की कमियों को दूर करते हुए, भारत ने दूरदराज के क्षेत्रों में संपर्क, रक्षा तैयारियों और सामाजिक-आर्थिक विकास में वृद्धि करने के उद्देश्य से कई महत्वपूर्ण परियोजनाएं शुरू की हैं, जिससे चीन के बढ़ते प्रभाव के विरुद्ध भारत की रणनीतिक स्थिति और अधिक मजबूत हुई है।

निरंतर बनी रहने वाली चुनौतियां: एक प्रमुख समस्या चीन पर भारत की आर्थिक निर्भरता का बने रहना है, विशेष रूप से स्वच्छ ऊर्जा और इलेक्ट्रॉनिक्स जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में। भारत द्वारा घरेलू विनिर्माण को समर्थन दिए जाने के प्रयासों के बावजूद, चीन अब भी एक महत्वपूर्ण व्यापारिक साझेदार बना हुआ है, जिसका आयात रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गया है। इसके अतिरिक्त, दक्षिण एशिया में निवेश और कूटनीतिक पहलों के माध्यम से चीन के बढ़ते प्रभाव से भारत के क्षेत्रीय प्रभुत्व को चुनौती मिल रही है, जिससे पड़ोसी देशों के साथ भारत के संबंधों में तनाव बढ़ रहा है और दक्षिण एशियाई देशों के साथ चीन के रिश्ते मजबूत हो रहे हैं। इसके अलावा, भारत को 'फाइव आइज़' देशों—एक खुफिया गठबंधन, जिसमें अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड शामिल हैं—में खुफिया सहयोग और लोकतांत्रिक मूल्यों से संबद्ध मुद्दों को लेकर जटिल संबंधों का सामना करना पड़ रहा है। ये तनाव भारत की वैश्विक स्थिति को जटिल बना देते हैं और चीन को इन मतभेदों का लाभ उठाने का अवसर प्रदान करते हैं, जिससे वह भारत को एक ऐसे अलग-थलग देश के रूप में प्रस्तुत करता है, जो प्रमुख शक्तियों के साथ अपने संबंधों को संतुलित करने के लिए संघर्ष कर रहा है।

रूस: रूस के साथ भारत की नीति एक बहुआयामी रणनीतिक साझेदारी द्वारा परिभाषित होती है, जिसका विस्तार सामरिक, आर्थिक और सैन्य क्षेत्रों तक है। 2010 में रणनीतिक साझेदार के रूप में जुड़ने वाले, भारत और रूस का उद्देश्य द्विपक्षीय व्यापार को बढ़ावा देना था, जिसके तहत प्रारंभिक लक्ष्य 2015 तक 20 बिलियन अमेरिकी डॉलर था। यद्यपि कई वर्षों तक व्यापार में निष्क्रियता बनी रही, तथापि 2022 में, भारत रूसी ऊर्जा का एक महत्वपूर्ण खरीदार बनकर उभरा, तथा रूस पर लगे अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों के बावजूद, भारतीय रिफाइनरियां वैश्विक बाजारों के लिए रूसी तेल के प्रसंस्करण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। सैन्य सहयोग इस संबंध की एक मजबूत आधारशिला बना हुआ है, और इसकी प्रमुख उपलब्धियों में S-400 मिसाइल रक्षा प्रणाली की खरीद, जिसे अमेरिका के CAATSA (Countering American Adversaries through Sanctions Act) के तहत छूट प्राप्त थी, के अलावा AK-203 राइफल्स, इगला मिसाइलें, Ka-226 हेलिकॉप्टर और स्टेल्थ फ्रिगेट्स (रडार से बच निकलने वाले युद्धपोत) जैसे विभिन्न सैन्य उपकरणों के लिए किए जा रहे समझौते शामिल हैं। भारत परमाणु ऊर्जा से संचालित एक अन्य पनडुब्बी लीज (पट्टे) पर लेने का भी प्रयास कर रहा है, हालांकि भारतीय सशस्त्र बलों में रूसी उपकरणों का अनुपात विविधीकरण और घरेलू उत्पादन की पहलों के कारण धीरे-धीरे घट रहा है। परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में भारत और रूस की साझेदारी निरंतर मजबूत बनी हुई है, जिसका उदाहरण 2023 में कुडनकुलम संयंत्र में 1,000 मेगावावॉट के चार अतिरिक्त रिएक्टरों के निर्माण हेतु किया गया समझौता है। भारत ने रूस के सुदूर पूर्वी क्षेत्र में अपनी सहभागिता बढ़ाई है, जिसमें 2019 में क्षेत्र के विकास के लिए 1 बिलियन अमेरिकी डॉलर की ऋण सुविधा की घोषणा और चेन्नई-व्लादिवोस्तोक समुद्री गलियारे को पुन: प्रचालित करने के प्रयास शामिल हैं। इसके अलावा, भारत यूरेशियन इकोनॉमिक यूनियन (Eurasian Economic Union) के साथ मुक्त व्यापार समझौते (Free Trade Agreement) पर चर्चा कर रहा है। समर्थन के संबंध में, रूस ने अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत के पक्ष का समर्थन किया है, जिसमें मुख्यतः अनुच्छेद 370 पर भारत का रुख तथा शंघाई सहयोग संगठन (SCO) में भारत की सदस्यता, और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुधारों के लिए भारत को दिया गया समर्थन शामिल हैं। बदले में, भारत अपनी विदेश नीति में सावधानीपूर्वक संतुलन बनाते हुए क्रीमिया और यूक्रेन में रूस की कार्रवाई की निंदा करने से परहेज करता है।

निरंतर बनी रहने वाली चुनौतियां: यद्यपि एक लंबे समय तक भारत और रूस आर्थिक, रणनीतिक और सामरिक क्षेत्रों में एक-दूसरे के महत्वपूर्ण सहयोगी रहें हैं, तथापि पिछले कुछ वर्षों से रूस का झुकाव पाकिस्तान की ओर देखा जा रहा है, यदि केवल आतंकवाद के मुद्दे पर ही विचार करें, तो स्पष्ट होता है कि आतंकवाद का विरोध करने के मामले में रूस भारत का समर्थन करता प्रतीत होता है, लेकिन वह इस मुद्दे पर खुलकर पाकिस्तान की आलोचना करने से बचता है। इसका उदाहरण हाल ही में हुए पहलगाम आतंकी हमले और तत्पश्चात भारत द्वारा पाकिस्तान में मौजूद आतंकी ठिकानों पर किए गए हमले, जिसे ‘ऑपरेशन सिंदूर’ नाम दिया गया था, पर रूस द्वारा तटस्थता के साथ भारत का सहयोग करने की अपनी प्रतिबद्धता को दोहराने के रूप में देखने को मिला। जैसा कि विशेषज्ञों का मानना है कि पश्चिम के साथ रूस के विवाद के साथ ही क्षेत्रीय भू-राजनीति में उभरने वाले नए समीकरणों ने रूस की दृष्टि में पाकिस्तान को अधिक महत्वपूर्ण बना दिया है। इसके अलावा, चीन-रूस के संबंधों की प्रगाढ़ता ने विशेषकर, पश्चिमी देशों द्वारा रूस को अलग-थलग किए जाने की स्थिति में भारत की रणनीतिक स्थिति को और अधिक जटिल बना दिया है। जैसे-जैसे रूस चीन के साथ अपने संबंधों को मजबूत करता जा रहा है, भारत के लिए आवश्यक हो गया है कि वह रूस के साथ अपनी साझेदारी को संतुलित रूप से अत्यंत सावधानीपूर्वक आगे बढ़ाए, ताकि अनजाने में वह चीन या पाकिस्तान के रणनीतिक हितों के पक्ष में न चली जाए। इसके अलावा, पश्चिमी प्रतिबंधों ने भारत और रूस के बीच व्यापार और भुगतान प्रक्रियाओं में बाधाएं उत्पन्न कर दी हैं। 2022 से ऊर्जा व्यापार में तेजी के बावजूद, इस दीर्घकालिक आर्थिक सहयोग की निरंतरता अब अनिश्चित बनी हुई है, जिसके परिणामस्वरूप वैकल्पिक आर्थिक मार्गों की तलाश आवश्यक हो गई है। इसके अतिरिक्त, रूस से भारत के रक्षा आयात में गिरावट—जो 2017 के 62 प्रतिशत से घटकर 2022 में 45 प्रतिशत हो गई है—भारत के रक्षा स्रोतों में विविधता लाने और घरेलू उत्पादन को बढ़ावा देने की व्यापक रणनीति को दर्शाती है। यह बदलाव भारत के लिए नए रक्षा आपूर्तिकर्ताओं की पहचान करने के साथ-साथ आपूर्ति श्रृंखला में संभावित बाधाओं का कुशलतापूर्वक प्रबंधन करने की आवश्यकता को भी रेखांकित करता है।

यूरोपीय संघ (ईयू): चीन के बढ़ते प्रभाव पर भारत और यूरोपीय संघ की साझा चिंताओं से प्रेरित भारत की नीति ने मुख्यतः एक आर्थिक मुद्दे से आगे बढ़ते हुए अब एक व्यापक रणनीतिक साझेदारी का रूप ले लिया है। भारत और यूरोप दोनों ही चीन की भू-राजनीतिक कूटनीतियों और उत्पन्न व्यवधानों के कारण चिंतित हैं, जैसा कि भारत-चीन सीमा संघर्षों और यूरोप द्वारा कोविड-19 महामारी के दौरान सामना की गई चुनौतियों से स्पष्ट होता है। इसके जवाब में, इन दोनों पक्षों ने प्रमुख संस्थागत संवाद स्थापित किए हैं, जिनमें यूरोपीय संघ-भारत संपर्क (कनेक्टिविटी) साझेदारी, ईयू-भारत व्यापार और प्रौद्योगिकी परिषद, और भारत-मध्य पूर्व-यूरोप आर्थिक गलियारा शामिल हैं। इन पहलों को समुद्री सुरक्षा, रक्षा, कृत्रिम बुद्धिमत्ता, जलवायु परिवर्तन और उभरती प्रौद्योगिकियों में सहयोग को बढ़ाने हेतु परिकल्पित किया गया है, जो मूल्य-आधारित साझेदारी दृष्टिकोण के अनुरूप है। इसके अतिरिक्त, भारत ने न केवल पेरिस, बर्लिन और लंदन जैसी प्रमुख यूरोपीय राजधानियों को बल्कि छोटे और क्षेत्रीय यूरोपीय देशों को भी शामिल करने के लिए अपनी राजनयिक पहुंच का विस्तार किया है। नॉर्डिक देशों (नॉर्वे, स्वीडन, डेनमार्क, फिनलैंड और आइसलैंड), विसेग्राद 4 समूह (पोलैंड, चेक गणराज्य, स्लोवाकिया और हंगरी) और स्लावकोव समूह (चेक गणराज्य, स्लोवाकिया और ऑस्ट्रिया) के साथ भारत की सक्रिय भागीदारी इन देशों की विशिष्ट क्षमताओं—जैसे कि नॉर्डिक देशों की नवाचार क्षमता का लाभ उठाकर अपने विकासात्मक और तकनीकी लक्ष्यों को आगे बढ़ाने की रणनीति को दर्शाती है। फरवरी 2022 से जारी रूस-यूक्रेन युद्ध के बावजूद, यूरोपीय संघ और भारत के संबंध काफी हद तक स्थिर बने हुए हैं। रूस के साथ व्यापार और संबंधों में उत्पन्न अस्तित्वगत खतरे के बावजूद, दोनों पक्षों ने नियमित संवाद बनाए रखा है और एक-दूसरे के रणनीतिक दृष्टिकोण को समझने की इच्छा प्रकट की है, जिसके चलते यह युद्ध द्विपक्षीय प्रगति और सहयोग में बाधा नहीं बन पाया है।

निरंतर बनी रहने वाली चुनौतियां: एक प्रमुख मुद्दा यूरोपीय संघ का कार्बन सीमा समायोजन तंत्र (Carbon Border Adjustment Mechanism-CBAM) है, जो यूरोपीय ग्रीन डील का हिस्सा है। यह व्यवस्था हरित प्रौद्योगिकियों को बढ़ावा देने के लिए आयात पर कार्बन-आधारित शुल्क लगाती है, लेकिन भारत ने इसकी आलोचना करते हुए कहा है कि यह उसके निर्यात के लिए, विशेष रूप से इस्पात और एल्युमीनियम जैसे उद्योगों के लिए, संभावित रूप से नुकसानदायक है। इसके अतिरिक्त, यूरोपीय संघ-भारत मुक्त व्यापार समझौता (FTA), जिसकी वार्ताएं नौ साल के अंतराल के बाद 2022 में फिर से शुरू हुईं, को श्रम और पर्यावरण मानकों तथा ऑटोमोबाइल और कृषि जैसे विवादास्पद क्षेत्रों से जुड़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ा। हालांकि ऑस्ट्रेलिया और संयुक्त अरब अमीरात जैसे अन्य भागीदारों के साथ हालिया व्यापार समझौतों ने मुक्त व्यापार समझौते की संभावनाओं को बेहतर बनाया है, लेकिन ये बाधाएं अभी भी बनी हुई हैं। इसके अलावा, नियामक और रणनीतिक मतभेद संबंधों को और जटिल बना देते हैं। बहुपक्षीय संस्थाओं में सुधार की दिशा में भारत का पक्ष यूरोप के पारंपरिक दृष्टिकोणों से भिन्न है, जिससे रूस-यूक्रेन संघर्ष जैसे वैश्विक मुद्दों पर मतभेद उभरकर सामने आए हैं। जहां यूरोप रूस को एक प्रमुख खतरे के रूप में देखता है, वहीं भारत का प्राथमिक ध्यान चीन पर केंद्रित है, और चीन-रूस की साझेदारी इस रणनीतिक परिदृश्य को और अधिक जटिल बना रही है। ये चुनौतियां विभिन्न प्राथमिकताओं और रणनीतिक चिंताओं के बीच यूरोपीय संघ-भारत संबंधों को आगे बढ़ाने में जटिलताओं को स्पष्ट रूप से उजागर करती हैं।

जापान: भारत की नीति को नियम-आधारित, स्वतंत्र और खुले हिंद-प्रशांत क्षेत्र के प्रति एक मजबूत प्रतिबद्धता के रूप में चिह्नित किया गया है, जो क्षेत्रीय स्थिरता बनाए रखने और एकपक्षीय कार्रवाइयों का विरोध करने हेतु भारत और जापान के साझा दृष्टिकोण को दर्शाता है। यह साझेदारी भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और जापान के पूर्व प्रधानमंत्री शिंजो आबे के बीच स्थापित घनिष्ठ व्यक्तिगत संबंध से स्पष्ट होती है, जो परवर्ती जापानी नेताओं के साथ निरंतर संवाद और सहयोग के माध्यम से लगातार जारी है। 2+2 वार्ता और 2020 का अधिग्रहण और क्रॉस-सर्विसिंग समझौते (Acquisition and Cross Servicing Agreement—ACSA) सहित प्रमुख गतिविधियों के साथ, दोनों देशों के बीच रक्षा सहयोग में हुई उल्लेखनीय वृद्धि के साथ ही, लगभग 1,400 जापानी कंपनियों द्वारा भारत में लगभग 40 बिलियन अमेरिकी डॉलर का निवेश किए जाने के कारण द्विपक्षीय संबंधों में महत्वपूर्ण सुधार हुआ है। जापान भारत का सबसे बड़ा द्विपक्षीय विकास सहयोग दाता (डोनर) भी है, जो महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचा, ऊर्जा और पर्यावरण परियोजनाओं में सहायक भूमिका निभाता है। इसके अतिरिक्त, भारत-जापान डिजिटल साझेदारी, अंतरिक्ष में संयुक्त उद्यम और स्वच्छ ऊर्जा परियोजनाओं जैसी सहयोगात्मक पहलें द्विपक्षीय संबंधों की बहुआयामी प्रकृति को उजागर करती हैं। रूस-यूक्रेन संघर्ष और इजराइल-गाजा की स्थिति जैसे वैश्विक मुद्दों पर मतभेदों के बावजूद, दोनों देशों के बीच मजबूत द्विपक्षीय संबंध कायम हैं। जापान में 2023 के G7 और क्वाड सम्मेलनों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भागीदारी ने वैश्विक चर्चाओं और क्षेत्रीय सुरक्षा में उनकी भूमिका को और दृढ़ किया, जबकि उनका सहयोग श्रीलंका, बांग्लादेश और म्यांमार जैसे तीसरे देशों तक फैला हुआ है, जो उनके रणनीतिक सहयोग को और मजबूत करता है। इसके अलावा, जापान में भारतीय समुदाय की संख्या बढ़ रही है तथा निशिकासाई भारतीय प्रवासियों के लिए एक केंद्र के रूप में उभर रहा है।

निरंतर बनी रहने वाली चुनौतियां: आर्थिक अंतराल एक महत्वपूर्ण चुनौती बना हुआ है, जैसा कि व्यापक आर्थिक भागीदारी समझौते (सीईपीए) के बावजूद व्यापार असंतुलन और बाजार पहुंच से जुड़ी समस्याएं भारत-जापान आर्थिक संबंधों में बाधा उत्पन्न कर रही हैं। इस समझौते के लागू होने के बाद भी जापान में भारत के निर्यात में अपेक्षित वृद्धि नहीं हुई है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि व्यापार और निवेश को बढ़ावा देने के लिए नीति की पुनः समीक्षा तथा विनियामक बाधाओं को सरल बनाने की आवश्यकता है। इसके अतिरिक्त, चीन की मुखर विदेश नीति और सैन्य विस्तार के संबंध में दोनों देशों की समान चिंताएं हैं, जिनसे निपटने और क्षेत्रीय जोखिमों का समाधान करने के लिए रणनीतिक समन्वय आवश्यक है। चीन से उत्पन्न आर्थिक और कूटनीतिक चुनौतियों से निपटने के लिए प्रभावी तंत्रों को सशक्त किया जाना आवश्यक है। इसके अतिरिक्त, देरी और प्रशासनिक बाधाओं जैसी नौकरशाही अड़चनों ने द्विपक्षीय समझौतों के क्रियान्वयन में बाधा उत्पन्न की है। प्रगति में तेजी लाने और भारत-जापान सहयोग को गहरा करने के लिए निर्णय लेने की प्रक्रियाओं को सुव्यवस्थित करना और नियामक जटिलताओं को हल करना आवश्यक है।

शेषःभारत की विदेश नीति (2014—अब तक) भाग-2

 

  

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