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राज्यपाल द्वारा विधेयकों पर स्वीकृति रोकने की शक्ति पर उच्चतम न्यायालय का निर्णय—भाग-2

राष्ट्रपति के लिए न्यायालय की समय-सीमा: अप्रैल 2025 के अपने निर्णय में उच्चतम न्यायालय ने माना कि राष्ट्रपति द्वारा किसी विधेयक पर “विचार” करने के लिए निश्चित समय-सीमा निर्धारित करना कठिन हो सकता है, लेकिन साथ ही इस तथ्य पर भी बल दिया कि निष्क्रियता को उचित नहीं ठहराया जा सकता। केंद्र सरकार की ओर से कहा गया कि केंद्रीय गृह मंत्रालय ने 2016 में स्वयं केंद्र सरकार के सभी मंत्रालयों और विभागों को राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए आरक्षित राज्य विधेयकों से संबंधित प्रश्नों के शीघ्र निपटान के संबंध में ज्ञापन जारी किए थे। (इन मंत्रालयों/विभागों को अपने क्षेत्र से संबंधित मुद्दों पर अपने विचार व्यक्त करने थे।) केंद्र सरकार ने अनुच्छेद 201 के तहत निर्देशों के निपटान की समय-सीमा और प्रक्रिया के संबंध में स्पष्ट दिशानिर्देश निर्धारित किए।


स्मरणीय है कि सरकारिया आयोग (1988), संविधान के कार्यकरण की समीक्षा के लिए राष्ट्रीय आयोग (2002) और पुंछी आयोग (2010) राज्यपाल द्वारा विधेयकों को राष्ट्रपति के लिए आरक्षित किए जाने तथा राष्ट्रपति द्वारा उन विधेयकों पर निर्णय लेने के लिए समय-सीमा निर्धारित करने के पक्ष में थे। सरकारिया आयोग ने समय-सीमा को परंपरा के रूप में स्थापित करने को प्राथमिकता दी, जबकि पुंछी आयोग समय-सीमा को संविधान में अंतःस्थापित करने हेतु उसके संशोधन के पक्ष में था।


यह कहते हुए कि “नियम यह निर्धारित करता है कि यदि किसी कानून के तहत किसी शक्ति के प्रयोग के लिए कोई समय-सीमा निर्दिष्ट नहीं है, तब भी उसका प्रयोग उचित समय के भीतर किया जाना चाहिए,” न्यायालय ने कहा कि “अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति द्वारा शक्तियों का प्रयोग इस सामान्य विधिक सिद्धांत से मुक्त नहीं माना जा सकता।” न्यायालय ने यह निर्धारित किया कि राष्ट्रपति को, संदर्भ प्राप्त होने की तिथि से तीन महीने की अवधि के भीतर, अपने विचारार्थ आरक्षित विधेयकों पर निर्णय ले लेना चाहिए। यदि इस अवधि के पश्चात विलंब होता है, तो राष्ट्रपति को उपयुक्त कारण दर्ज कर उन्हें संबंधित राज्य को सूचित करना चाहिए। इसी प्रकार, राज्यों को उठाए गए प्रश्नों के उत्तर देकर सहयोग करना चाहिए और केंद्र सरकार द्वारा दिए गए सुझावों पर शीघ्रता से विचार करना चाहिए।

कोई पॉकेट वीटो या पूर्ण वीटो नहीं: न्यायालय ने जोर देकर कहा कि राष्ट्रपति और राज्यपाल, जो क्रमशः राष्ट्र और राज्य के संवैधानिक प्रमुख होते हैं, उनके लिए यह आवश्यक है कि वे “संवैधानिक लोकतंत्र के मूलभूत सिद्धांतों” पर आधारित एक निश्चित संवैधानिक व्यवस्था के अंतर्गत ही कार्य करें। इस संवैधानिक व्यवस्था में ‘पॉकेट वीटो’ या ‘पूर्ण वीटो’ के लिए कोई जगह नहीं है। इसलिए, संविधान में इस प्रकार के वीटो की अनुमति नहीं है। सहमति न देने के कारण बताए जाने चाहिए और संबंधित राज्य सरकार को सूचित किया जाना चाहिए।

दूसरे चरण में भी, जिसमें राष्ट्रपति या तो विधेयक को स्वीकृति दे सकता है अथवा स्वीकृति न देकर उसे प्रभावी रूप से निरस्त कर सकता है, राष्ट्रपति को स्वीकृति न देने के कारणों को स्पष्ट रूप से बताना होगा और उन नीतिगत विचारों को भी स्पष्ट करना होगा, जिनके आधार पर उसके द्वारा यह निर्णय लिया गया है। न्यायालय के अनुसार, “अनुच्छेद 201 के परंतुक को लागू करने के बाद स्वीकृति न देने के विकल्प को चुनने के निर्णय को इस रूप में नहीं समझा जाएगा कि राष्ट्रपति द्वारा किसी ‘पूर्ण वीटो’ अथवा इसी प्रकार की किसी शक्ति का प्रयोग किया जा रहा है।”

इसके अलावा, अनुच्छेद 201 के तहत ‘स्वीकृति न देने’ की कोई भी कार्रवाई केवल तभी होनी चाहिए जब संबद्ध विधेयक संविधान के किसी विशिष्ट प्रावधान से संबंधित हो, जिसमें प्रारंभ में राष्ट्रपति की सहमति की आवश्यकता पर जोर दिया गया हो अथवा जहां राज्य विधान और केंद्रीय विधान के बीच असंगति हो, उदाहरण के लिए, अनुच्छेद 31क, 31ग, 254(2), 288(2), 360(4)(i)(क), आदि।

अनुच्छेद 143 के तहत न्यायालयों द्वारा विधेयकों की संवैधानिकता का मूल्यांकन: यदि किसी विधेयक को इस आधार पर राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित रखा जाता है कि उसमें निहित सामग्री द्वारा लोकतंत्र के लिए खतरा उत्पन्न किए जाने के कारण वह असंवैधानिक है, तो राष्ट्रपति का निर्णय इस तथ्य से निर्देशित होना चाहिए कि संविधान की व्याख्या का अंतिम अधिकार संवैधानिक न्यायालयों को प्राप्त है। सरकारिया आयोग और पुंछी आयोग का मत था कि जो विधेयक स्पष्ट रूप से असंवैधानिक प्रतीत होते हैं, उनके संबंध में राष्ट्रपति को संविधान के अनुच्छेद 143 के अंतर्गत उच्चतम न्यायालय से राय लेनी चाहिए। न्यायालय भी यह मानता है कि ऐसे मामलों में राष्ट्रपति द्वारा अनुच्छेद 143 के अंतर्गत उच्चतम न्यायालय से परामर्श लेना एक विवेकपूर्ण कदम होगा। वास्तव में, न्यायालय का कहना है कि संघीय कार्यपालिका को किसी विधेयक की वैधता (शक्तियों की सीमा) तय करने में न्यायालयों की भूमिका नहीं निभानी चाहिए, बल्कि व्यावहारिक रूप में ऐसे मामलों को संविधान के अनुच्छेद 143 के अंतर्गत उच्चतम न्यायालय को संदर्भित करना चाहिए।


अनुच्छेद 143 उच्चतम न्यायालय के सलाहकारी क्षेत्राधिकार से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि यदि किसी समय राष्ट्रपति को प्रतीत होता है कि विधि या तथ्य का कोई ऐसा प्रश्न उत्पन्न हुआ है या उत्पन्न होने की संभावना है, जो ऐसी प्रकृति का और ऐसे व्यापक महत्व का है कि उस पर उच्चतम न्यायालय की राय प्राप्त करना समीचीन है, तो वह उस प्रश्न को विचार करने के लिए उस न्यायालय को निर्देशित कर सकेगा और वह न्यायालय, ऐसी सुनवाई के पश्चात, जो वह ठीक समझता है, राष्ट्रपति को उस पर अपनी राय प्रतिवेदित कर सकेगा।


यद्यपि अनुच्छेद 143 के तहत उच्चतम न्यायालय की राय राष्ट्रपति पर बाध्यकारी नहीं है, अर्थात राष्ट्रपति उसे स्वीकार कर सकता है और अस्वीकार भी, तथापि न्यायालय ने टिप्पणी की कि “चूंकि किसी विधेयक की संवैधानिकता ऐसा विषय है जो विशेष रूप से न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र में आता है, इसलिए अनुच्छेद 143 के तहत उच्चतम न्यायालय द्वारा दी गई राय का अत्यधिक महत्व है और सामान्यतः इसे विधायिका और कार्यपालिका द्वारा स्वीकार किया जाना चाहिए।”

राज्यपाल और राष्ट्रपति के कार्यों की न्यायिक समीक्षा: उच्चतम न्यायालय की पीठ ने राज्य विधेयकों पर स्वीकृति से संबंधित राज्यपाल और राष्ट्रपति के कार्यों की न्यायिक समीक्षा के दायरे को विस्तृत किया। अब राज्य सरकारें सक्षम न्यायालयों में जा सकती हैं और यदि नियत दिशानिर्देशों का पालन न किया गया हो तो परमादेश याचिका की मांग कर सकती हैं। (परमादेश याचिका के माध्यम से कोई सक्षम न्यायालय किसी लोक सेवक को उसके वैधानिक कर्तव्य का निर्वहन करने हेतु निर्देश देने की अनुमति देता है।)

न्यायालय ने स्पष्ट किया कि न्यायिक समीक्षा और न्यायसंगतता दो भिन्न अवधारणाएं हैं। एक लिखित संविधान में, जब तक कोई प्रावधान स्पष्ट रूप से न्यायिक समीक्षा को वर्जित न करे, तब तक संविधान के प्रत्येक प्रावधान के संबंध में न्यायिक समीक्षा की शक्ति निहित होती है। हालांकि, न्यायसंगतता न्यायिक समीक्षा की शक्ति के दायरे के भीतर एक क्षेत्र विशेष से संबंधित है।

न्यायालय ने कहा कि, अनुच्छेद 200 और 201 के तहत राज्यपाल और राष्ट्रपति दोनों को न्यायिक समीक्षा से उन्मुक्ति प्राप्त नहीं है। रामेश्वर प्रसाद बनाम भारत संघ मामले (2006) का संदर्भ देते हुए पीठ ने कहा कि अनुच्छेद 361, जो संवैधानिक प्रमुखों को संरक्षण प्रदान करता है, के बावजूद न्यायालय राज्यपाल के कार्यों की जांच करने हेतु अक्षम नहीं हैं। बी.के. पवित्रा बनाम भारत संघ मामले (2019) में कहा गया था कि राज्यपाल द्वारा किसी विधेयक को राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित रखा जाना न्यायिक जांच के दायरे से बाहर है, लेकिन अप्रैल 2025 के निर्णय में इस विचार से असहमति जताई गई।

राज्यपाल की शक्तियों पर उच्चतम न्यायालय के पूर्व निर्णय

उच्चतम न्यायालय द्वारा विभिन्न निर्णयों के माध्यम से राज्यपाल को प्राप्त विवेकाधीन शक्तियों की स्पष्ट व्याख्या की गई है और उन्हें सीमित किया गया है:

  1. समशेर सिंह बनाम पंजाब राज्य (1974): उच्चतम न्यायालय ने माना कि संसदीय लोकतंत्र में वास्तविक कार्यकारी शक्ति निर्वाचित मंत्रिपरिषद के पास होती है। राज्यपाल एक संवैधानिक प्रमुख होते हैं, जिसे मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह से कार्य करना होता है, सिवाय उन मामलों के जहां संविधान स्पष्ट रूप से विवेकाधिकार की अनुमति देता है। इस मामले ने राज्यपाल के स्वतंत्र अधिकार को सीमित करने की आधारशिला रखी।
  2. एस.आर. बोम्मई बनाम भारत संघ (1994): न्यायालय ने इस बात की पुष्टि की कि संघवाद संविधान की मूल संरचना का भाग है। न्यायालय ने राज्यपाल की प्रतीकात्मक भूमिका पर बल देते हुए कहा कि विवेकाधीन शक्तियों का दुरुपयोग संघीय संतुलन और राज्य सरकारों की लोकतांत्रिक कार्यप्रणाली को बाधित कर सकता है।
  3. रामेश्वर प्रसाद बनाम भारत संघ (2006): यद्यपि अनुच्छेद 361 राज्यपाल को विधिक कार्यवाहियों से उन्मुक्ति प्रदान करता है, तथापि न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि यह राज्यपाल के कार्यों की न्यायिक समीक्षा को नहीं रोकता। यदि किसी कार्य पर दुर्भावनापूर्ण या असंवैधानिक होने का आरोप हो, तो न्यायालय उसकी वैधता की जांच कर सकते हैं।
  4. नबाम रेबिया और बामंग फेलिक्स बनाम उपसभापति (2016): न्यायालय ने दोहराया कि राज्यपाल को मंत्रिपरिषद की सलाह से ही कार्य करने चाहिए, और ऐसे मामलों में अपने विवेक से कार्य नहीं करना चाहिए जिनकी अनुमति संविधान में स्पष्ट रूप से नहीं दी गई है। इस निर्णय ने इस सिद्धांत को और पुष्ट किया कि राज्यपाल सामान्य विधायी कार्यों में अवरोध नहीं डाल सकता और न ही हस्तक्षेप कर सकता है।
  5. तेलंगाना राज्य बनाम राज्यपाल के सचिव (2023): न्यायालय ने विधेयकों को स्वीकृति देने में देरी पर ध्यान आकृष्ट करते हुए कहा कि अनुच्छेद 200 में “यथाशीघ्र” पद त्वरित कार्रवाई के लिए एक संवैधानिक अधिदेश है। राज्यपाल किसी निर्णय के बिना किसी विधेयक को अनिश्चित काल तक रोककर नहीं रख सकता, क्योंकि यह विधायिका के महत्व को कम करता है।
  6. पंजाब राज्य बनाम राज्यपाल के प्रधान सचिव (2023): उच्चतम न्यायालय ने पंजाब में आम आदमी पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार और तत्कालीन राज्यपाल बनवारीलाल पुरोहित के बीच उत्पन्न विवाद की सुनवाई की। इस मामले में, राज्यपाल ने राज्य विधान-मंडल द्वारा पारित कई विधेयकों को स्वीकृति देने में देरी की। उच्चतम न्यायालय ने हस्तक्षेप करते हुए निर्णय दिया कि राज्यपाल किसी विधेयक को स्वीकृति देने के लिए अनिश्चित काल तक लंबित नहीं रख सकते। यदि वे असहमत हैं, तो उन्हें विधेयक को पुनर्विचार के लिए विधान-मंडल को वापस भेजना चाहिए न कि विधायी प्रक्रिया में अवरोध उत्पन्न करना चाहिए। राज्य के प्रमुख के रूप में, राज्यपाल का दायित्व है कि वे जनकल्याण के लिए कार्य करें और शासन व्यवस्था में बाधा न डालें।

न्यायालय ने कहा कि राज्यपाल या राष्ट्रपति द्वारा मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह से दी गई स्वीकृति का कार्य सामान्यतः न्यायोचित नहीं हो सकता। हालांकि, जब राज्यपाल अपनी विवेकाधीन शक्ति का प्रयोग करते हुए और राज्य की मंत्रिपरिषद की सलाह के विपरीत स्वीकृति रोक देते हैं या विधेयक को राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित रख देते हैं, तो ऐसी कार्रवाई न्यायोचित होगी।

इस प्रश्न पर विचार करते हुए कि क्या राज्यपाल या राष्ट्रपति के उन कार्यों की न्यायिक समीक्षा करना उचित है, जो मुख्यतः राजनीतिक प्रकृति के होते हैं, और इसलिए उन्हें न्यायालय में विचारणीय नहीं माना जाता, न्यायालय ने एस.आर. बोम्मई बनाम भारत संघ (1994) मामले का उल्लेख किया, जिसमें यह निर्णय दिया गया था कि राजनीतिक रूप में प्रस्तुत किए गए विधिक प्रश्न भी न्यायालय में विचारणीय (न्यायोचित) होते हैं।

अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल की शक्ति की न्यायिक समीक्षा: यदि राज्यपाल अनुच्छेद 200 के दूसरे परंतुक के तहत किसी विधेयक को सुरक्षित रखता है, तो उसे अपने निर्णय के कारणों को दर्ज करना होगा और स्पष्ट रूप से उन विशिष्ट प्रावधानों का उल्लेख करना होगा जो उच्च न्यायालय की शक्तियों को कम करते हैं। यदि राज्य सरकार को यह प्रतीत होता है कि विधेयक के प्रावधान उच्च न्यायालय की शक्तियों को कम नहीं करते, तो वह राज्यपाल की कार्रवाई को न्यायालय में चुनौती दे सकती है। यह प्रश्न पूरी तरह से विधिक प्रकृति का है, और इसलिए पूरी तरह न्यायालय में विचारणीय (न्यायसंगत) है, तथा सक्षम न्यायालय राज्यपाल द्वारा की गई ऐसी आरक्षण प्रक्रिया को स्वीकृति या अस्वीकृति देने के लिए पूर्ण रूप से अधिकृत होगा। राज्यपाल की कार्रवाई को अस्वीकृत किए जाने के मामले में न्यायालय राज्यपाल को उपयुक्त कार्रवाई के लिए परमादेश रिट जारी कर सकता है; और यदि राज्यपाल की कार्रवाई को स्वीकृति मिलती है, तो अनुच्छेद 200 के दूसरे परंतुक के तहत निर्धारित प्रक्रिया का पालन किया जाएगा।

यदि राष्ट्रपति के विचार हेतु आरक्षित रखा गया विधेयक ऐसा है जिसे कानून बनने से पहले, एक नियम या शर्त के रूप में, राष्ट्रपति की स्वीकृति की आवश्यकता है, या जो केंद्र सरकार द्वारा बनाई गई विधि से असंगति को दूर करने के लिए आवश्यक हो, तो राज्यपाल को ऐसे आरक्षण के लिए स्पष्ट कारण देने होंगे। यदि राज्यपाल कारण नहीं देता या दिए गए कारण अप्रासंगिक, दुर्भावनापूर्ण (mala-fide), मनमाने, अनावश्यक या बाहरी प्रलोभनों से प्रेरित होते हैं, तो राज्य सरकार इस आरक्षण को चुनौती दे सकती है। यह मामला पूर्णतः न्यायालय में विचारणीय होगा और सक्षम न्यायालय, राज्यपाल द्वारा किए गए इस आरक्षण को स्वीकार या अस्वीकार कर सकता है।

जहां किसी विधेयक को लोकतंत्र या लोकतांत्रिक सिद्धांतों को संकट में डालने के आधार पर या अन्य विशेष कारणों से आरक्षित रखा जाता है, वहां राज्यपाल से अपेक्षित होगा कि वह अपने इस मत के स्पष्ट कारण दे, संबंधित विशिष्ट प्रावधानों को इंगित करे और यह भी बताएं कि ऐसे विधेयक के कानून बनने पर उसका क्या प्रभाव होगा। यदि राज्यपाल ने कारण दिए हो या दिए गए कारण पूरी तरह अप्रासंगिक, दुर्भावनापूर्ण, मनमाने, अनावश्यक या असंबद्ध विचारों से प्रेरित हो, तो राज्य सरकार राज्यपाल की कार्रवाई को चुनौती दे सकती है। यह मुद्दा न्यायालय में विचारणीय (न्यायोचित) है और इस पर संवैधानिक न्यायालयों द्वारा निर्णय लिया जा सकता है।

राज्यपाल द्वारा व्यक्तिगत असंतोष, राजनीतिक स्वार्थ (हित) या किसी अन्य असंगत या अप्रासंगिक विचार के आधार पर विधेयकों को आरक्षित रखना असंवैधानिक होगा। इस तरह के आरक्षण को रद्द किया जा सकता है।

राज्यपाल के समक्ष प्रस्तुत किसी विधेयक पर उसके द्वारा निर्णय लेने में निष्क्रियता दिखाने या न्यायालय द्वारा निर्धारित समय-सीमा से अधिक समय लेने की स्थिति में, राज्य सरकार राज्यपाल के विरुद्ध सक्षम न्यायालय से परमादेश रिट की मांग कर सकती है। राज्यपाल विलंब के लिए उपयुक्त स्पष्टीकरण देकर इस न्यायिक चुनौती से बच सकता है।

अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति की शक्ति की न्यायिक समीक्षा: यदि राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित रखे गए विधेयकों पर राष्ट्रपति अपनी स्वीकृति रोककर रखता है, तो राज्य सरकार इस कार्रवाई को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दे सकती है।

यदि किसी राज्य विधेयक को इस आधार पर आरक्षित रखा जाता है कि उसे लागू करने या किसी प्रकार की उन्मुक्ति प्राप्त करने के लिए राष्ट्रपति की सहमति आवश्यक है, तो राष्ट्रपति द्वारा अपनी स्वीकृति रोककर रखने की कार्रवाई केवल उसी सीमा तक न्यायालय में विचारणीय होगी, जब तब यह सिद्ध हो कि वह निर्णय मनमाने या दुर्भावनापूर्ण ढंग से लिया गया है। चूंकि इन वर्गों के विधेयकों पर राष्ट्रपति की स्वीकृति राजनीतिक प्रकृति की मानी जाती है, इसलिए न्यायालय इस प्रकार के मामलों में आत्मसंयम का पालन करेंगे।

यदि किसी राज्य विधेयक को राज्यपाल द्वारा अपने विवेकाधिकार के तहत इस आधार पर आरक्षित रखा गया हो कि वह विधेयक स्पष्ट रूप से असंवैधानिक प्रतीत होता है, तो सामान्य परिस्थितियों में राष्ट्रपति द्वारा स्वीकृति रोकना केवल विधिक और संवैधानिक प्रश्नों से संबंधित होगा और इसलिए वह न्यायालय में विचारणीय (न्यायोचित) होगा। ऐसे मामलों में यह उपयुक्त होगा कि राष्ट्रपति इस विषय को अनुच्छेद 143 के तहत उच्चतम न्यायालय को संदर्भित करे ताकि न्यायालय की परामर्शकारी राय प्राप्त की जा सके।

यदि राष्ट्रपति, अनुच्छेद 201 के अंतर्गत उसके समक्ष स्वीकृति के लिए प्रस्तुत विधेयक पर निर्णय लेने में, न्यायालय द्वारा निर्धारित समय-सीमा के बाद भी निष्क्रियता दिखाता है, तो राज्य सरकार उच्चतम न्यायालय से परमादेश रिट की मांग करने के लिए स्वतंत्र है।

अनुच्छेद 142 के तहत उच्चतम न्यायालय द्वारा शक्तियों का प्रयोग: संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत उच्चतम न्यायालय को अपनी अधिकारिता का प्रयोग करते हुए ऐसी डिक्री पारित करने या ऐसा आदेश देने की शक्ति प्राप्त है, जो उसके समक्ष लंबित किसी मामले में पूर्ण न्याय करने के लिए आवश्यक हो।

उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 142 के तहत अपनी शक्ति का प्रयोग करते हुए तमिलनाडु विधान सभा द्वारा पारित दस विधेयकों को तत्काल प्रभावी कर दिया, जिन्हें राज्यपाल द्वारा लंबे समय से लंबित रखा गया था। न्यायालय ने टिप्पणी की कि यदि किसी विधेयक को राज्य विधान सभा द्वारा पारित किए जाने के बावजूद लंबे समय तक लंबित रखा जाता है, तो यह प्रत्यक्ष चुनावों पर आधारित प्रतिनिधि लोकतंत्र के अस्तित्व के विरुद्ध है।

न्यायालय ने कहा कि राज्यपाल के आचरण में सद्भावना (निष्पक्षता) का अभाव था, और ऐसे अनेक उदाहरण सामने आए हैं जहां राज्यपालों द्वारा उच्चतम न्यायालय के निर्णयों और निर्देशों के प्रति उचित सम्मान और आदर प्रकट नहीं किया गया। ऐसी परिस्थितियों में न्यायालय को यह विश्वास नहीं था कि केवल राज्यपाल को निर्देश देना पर्याप्त होगा। अतः न्यायालय ने अनुच्छेद 142 के अंतर्गत कार्रवाई करने का निर्णय लिया।

न्यायालय ने यह घोषणा की कि तमिलनाडु के राज्यपाल द्वारा उन विधेयकों को राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित रखना, जिन्हें राज्य विधान सभा द्वारा पुनः पारित कर दोबारा प्रस्तुत किया गया था, विधिक दृष्टि से त्रुटिपूर्ण था। अतः, न्यायालय ने राज्यपाल की कार्रवाई को निरस्त कर दिया।

न्यायालय ने घोषणा की कि उन विधेयकों को इस प्रकार माना जाएगा कि उन्हें उसी तिथि को राज्यपाल की स्वीकृति प्राप्त हो गई थी, जिस दिन उन्हें राज्य विधान सभा द्वारा पुनर्विचार के पश्चात राज्यपाल के समक्ष प्रस्तुत किया गया था, अर्थात 18 नवंबर, 2023 को। इसके परिणामस्वरूप, राष्ट्रपति द्वारा कुछ विधेयकों को अस्वीकार करने और कुछ को लंबित रखने की कार्रवाई भी शून्य और निष्प्रभावी हो गई। इस प्रकार, न्यायालय ने राज्यपाल एवं राष्ट्रपति दोनों की कार्रवाइयों को निरस्त कर दिया।

इस प्रकार, ऐसा पहली बार हुआ कि विधेयक राज्यपाल या राष्ट्रपति की विधिवत और आधिकारिक हस्ताक्षर के बिना ही कानून बन गए।

[उच्चतम न्यायालय के आदेश के अनुपालन में, तमिलनाडु सरकार ने 11 अप्रैल, 2025 को एक राजपत्र (गजट) जारी कर यह घोषणा की कि उक्त विधेयक अधिनियमित हो चुके हैं।]

विश्लेषण

विधेयकों पर राज्यपाल की स्वीकृति के संबंध में उच्चतम न्यायालय के निर्णय पर प्रतिक्रियाएं

राज्य विधान-मंडलों द्वारा पारित विधेयकों पर राज्यपालों और राष्ट्रपति द्वारा कार्रवाई करने की समय-सीमा निर्धारित करने वाले उच्चतम न्यायालय के फैसले की विधि विशेषज्ञों द्वारा सराहना और आलोचना दोनों की गई है।

समर्थन करने वाले विचार: जो लोग इस फैसले का समर्थन करते हैं, उनका मानना है कि इससे लोकतंत्र मजबूत होगा और राज्य सरकारों को अनावश्यक देरी से मुक्ति मिलेगी।

लोक सभा के पूर्व महासचिव पी.डी.टी. आचार्य ने कहा कि यह निर्णय संघवाद के सिद्धांतों को बरकरार रखता है और उन राज्यों की सरकारों को, जिनका शासन संघ सरकार से भिन्न दलों के हाथ में है, राज्यपालों द्वारा किए जाने वाले अनुचित विलंब के विरुद्ध एक स्पष्ट संवैधानिक उपचार प्रदान करता है। उन्होंने कहा कि यह निर्णय महत्वपूर्ण है क्योंकि “यह सुनिश्चित करता है कि महत्वपूर्ण विधेयकों के अधिनियमन में अनिश्चित काल तक विलंब न हो।”

वरिष्ठ अधिवक्ता शादान फरासत के अनुसार, “राज्यपाल द्वारा निर्धारित समय-सीमा का पालन न करने की स्थिति में स्वतः स्वीकृति को मान्यता देकर न्यायालय ने पद के दुरुपयोग के विरुद्ध एक महत्वपूर्ण संरक्षोपाय स्थापित किया है।” उन्होंने यह भी कहा कि यह निर्णय उन मामलों में भी सहायक सिद्ध हो सकता है, जहां केंद्र सरकार न्यायिक नियुक्तियों में अनावश्यक विलंब करती है।

भारत के पूर्व अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल विश्वजीत भट्टाचार्य ने राज्यपाल के पद के राजनीतिक दुरुपयोग की आलोचना करते हुए कहा, “उच्चतम न्यायालय पर यह संवैधानिक दायित्व था कि वह राज्यपाल की किसी भी मनमानी निष्क्रियता पर अंकुश लगाए और एक समय-सीमा निर्धारित करे। यह निर्णय अनुकरणीय है और इसकी सराहना की जानी चाहिए।”

उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश, न्यायमूर्ति के.एम. जोसेफ ने कहा, “यह निर्णय लोकतंत्र और संघवाद को आगे बढ़ाने वाला है” और यह भी कहा कि विधेयकों को स्वीकृति देने में देरी करना “लोकतंत्र पर सीधा हमला करना है।”

हालांकि, कुछ विशेषज्ञों ने न्यायालय द्वारा अपनी अधिकारिता की सीमा का अतिक्रमण किए जाने के बारे में चिंता व्यक्त की है। अन्य लोगों ने यह भी टिप्पणी की है कि इसमें शक्तियों के पृथक्करण की अवधारणा का उल्लंघन किया गया है।

संविधान विशेषज्ञ और उच्चतम न्यायालय के अधिवक्ता विवेक नारायण शर्मा ने तर्क दिया कि “अनुच्छेद 200 और अनुच्छेद 201 के तहत एक निश्चित समय-सीमा निर्धारित कर न्यायालय ने प्रभावी रूप से संविधान में एक पूरक जोड़ दिया है,” जो कि उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर है। लंबित विधेयकों को अनुमोदित घोषित करने के लिए विशेष शक्तियों के प्रयोग द्वारा न्यायालय “कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में प्रवेश कर गया,” और यह कदम “न्यायिक विधान” के समान है, जिसे अतीत में न्यायालय द्वारा अकसर टालने का प्रयास किया जाता रहा है।

यह निर्णय संतुलन को राज्य के निर्वाचित नेतृत्व के पक्ष में झुका हुआ दर्शाता है तथा संघ (जो राज्यपालों की नियुक्ति करता है तथा उनके निर्णयों को प्रभावित करता है) से दूरी बनाता है, और संघीय सिद्धांत को मजबूत करता है।

यह अनिर्वाचित अधिकारियों के लिए जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों की अवहेलना करना कठिन बनाकर लोकतांत्रिक सिद्धांतों को मजबूत करता है।

यह अपेक्षा की जा सकती है कि भविष्य में खुले तौर पर पक्षपातपूर्ण रीति से राज्यपालों की नियुक्ति नहीं की जाएगी, और वे अधिक रचनात्मक तथा संवैधानिक मर्यादाओं का पालन करने वाले नेता बनेंगे।

आलोचनात्मक विचार: कानून बनाना विधायिका का, और सहमति देना या रोकना कार्यपालिका का कार्य है (जो शक्ति राज्यपाल/राष्ट्रपति में निहित है)। ऐसा प्रतीत होता है कि न्यायालय द्वारा न्यायिक आदेश के माध्यम से विधेयकों को स्वीकृति देने की पहल ने इन दोनों शक्तियों के बीच की स्पष्ट संवैधानिक सीमाओं को अस्पष्ट कर दिया है।

उच्चतम न्यायालय के पास अनुच्छेद 142 के तहत निर्णय देने का विधिसम्मत अधिकार है। जब कार्यपालिका किसी निर्णय में अत्यधिक विलंब करती है और उससे किसी बंदी के अधिकारों का हनन होता है, तो न्यायालय द्वारा उसकी रिहाई का आदेश देने जैसे मामलों में इस अनुच्छेद के प्रयोग पर कभी कोई आपत्ति नहीं की गई है। हालांकि, वर्तमान मामले में अनुच्छेद 142 के प्रयोग ने ‘न्यायिक अतिक्रमण’ (judicial overreach) से जुड़े मुद्दों को जन्म दिया है; न्यायपालिका के हस्तक्षेप ने प्रभावी रूप से एक अन्य संवैधानिक प्राधिकारी अर्थात भारत के राष्ट्रपति के उस निर्णय को निष्प्रभावी कर दिया है, जिसके तहत उन्होंने दस में से सात विधेयकों पर अपनी स्वीकृति नहीं दी थी। आलोचकों के अनुसार, इस फैसले से ऐसा प्रतीत होता है मानो न्यायालय ने स्वयं को सर्वोच्च कार्यपालक प्राधिकारी, अर्थात राष्ट्रपति, से भी ऊपर स्थापित कर दिया हो।

एक राजनीतिक विश्लेषक के अनुसार, यह “अभूतपूर्व” था कि न्यायालय ने संवैधानिक प्रक्रिया को दरकिनार करते हुए विधेयकों को उनके प्रस्तुत किए जाने की तिथि से ही स्वीकृत मान लिया। इस कदम को “सरकार के अंगों के बीच शक्तियों के समानांतर विभाजन का उल्लंघन” माना जा सकता है। न्यायालय ने खुद को केवल राज्यपाल की कार्रवाई को अवैध घोषित करने तक सीमित नहीं रखा, जो कि न्यायिक समीक्षा का एक आवश्यक पहलू होता है, बल्कि इसने उससे आगे बढ़कर स्वयं स्थिति को सुधारने का प्रयास किया है।

हालांकि न्यायाधीशों ने जोर देकर कहा कि राज्यपाल और राष्ट्रपति के लिए समय-सीमा निर्धारित करना संविधान में संशोधन करना नहीं है, बल्कि यह केवल “मनमानी निष्क्रियता को रोकने” का एक प्रयास है, लेकिन आलोचकों का मानना ​​है कि यह एक प्रकार से ‘न्यायिक अधिदेश’ (judicial fiat) के माध्यम से किया गया संशोधन जैसा है, क्योंकि संविधान ने इस विषय को जान-बूझकर खुला छोड़ा था ताकि इसमें लचीलापन बना रहे।

इस निर्णय के बाद यह आशंका व्यक्त की जा रही है कि मुकदमों की संख्या में वृद्धि हो सकती है। राजनीतिक समाधान और आपसी समझौते की बजाय अब न्यायिक हस्तक्षेप को एक सामान्य प्रवृत्ति के रूप में अपनाया जा सकता है।

यह प्रश्न भी उठाया गया है कि इतने महत्वपूर्ण संवैधानिक मुद्दों पर केवल दो न्यायाधीशों की पीठ द्वारा सुनवाई क्यों की गई, जबकि ऐसे मामलों को कम से कम तीन न्यायाधीशों की पीठ के समक्ष लाया जाना चाहिए था।

यद्यपि यह निर्णय राज्य स्तर पर निर्वाचित सरकारों को सशक्त बनाता है और इस बात पर जोर देता है कि निष्क्रियता या राजनीति को संवैधानिक प्रक्रियाओं को प्रभावित करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए, तथापि यह न्यायपालिका की शक्तियों का विस्तार भी करता है, जिससे न्यायपालिका को शासन में अधिक हस्तक्षेप करने की अनुमति मिलती है।

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