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भारत की विदेश नीति (2014—अब तक) भाग-3

जलवायु कूटनीति: भारत जलवायु कूटनीति में एक सक्रिय नेतृत्वकर्ता के रूप में उभरा है तथा अपनी महत्वाकांक्षी जलवायु कार्रवाई और पर्यावरण संरक्षण के प्रयासों के लिए संयुक्त राष्ट्र से प्रशंसा प्राप्त की है। जलवायु परिवर्तन प्रदर्शन सूचकांक (Climate Change Performance Index—CCPI) 2023 के अनुसार, भारत वर्तमान में अपने जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने की दिशा में अग्रसर एकमात्र G20 देश है। इस नेतृत्व के अंतर्गत प्रमुख पहलों में शामिल हैं: अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन (आईएसए), जिसे 2015 में वैश्विक सौर ऊर्जा के विस्तार को बढ़ावा देने के लिए शुरू किया गया; आपदा प्रतिरोधी बुनियादी ढांचे के लिए गठबंधन (सीडीआरआई), जिसकी स्थापना 2019 में जलवायु जनित आपदाओं के विरुद्ध बुनियादी ढांचे की मजबूती को बढ़ाने के लिए की गई; और पर्यावरण के लिए जीवनशैली (LiFE) मिशन, जिसे स्थायी जीवन शैली को प्रोत्साहित करने के लिए 2021 में शुरू किया गया था।

भारत की जलवायु कूटनीति में कई महत्वपूर्ण प्रवृत्तियां देखने को मिलती हैं। भारत ने 2022 तक 175 गीगावॉट के अपने प्रारंभिक नवीकरणीय ऊर्जा लक्ष्य को पार कर लिया है, तथा 2024 तक 190 गीगावॉट से अधिक का लक्ष्य हासिल कर लिया है। भारत ने 2030 तक तीव्र उत्सर्जन में 45 प्रतिशत की कटौती करने और गैर-जीवाश्म ईंधन से 50 प्रतिशत विद्युत उत्पन्न करने का लक्ष्य रखा है। इन प्रगतियों के बावजूद, भारत कोयले पर अपनी निर्भरता के कारण उच्च उत्सर्जन की चुनौती का सामना कर रहा है, जिससे आर्थिक विकास और निम्न-कार्बन अर्थव्यवस्था की ओर संक्रमण के बीच संतुलन बनाना कठिन हो गया है। गति शक्ति योजना जैसी पहलें बुनियादी ढांचे को सुदृढ़ बनाने के साथ-साथ जलवायु के प्रति लचीलापन सुनिश्चित करने का प्रयास कर रही हैं, जबकि COP28 में शुरू की गई लीडरशिप ग्रुप फॉर इंडस्ट्री ट्रांजिशन (LeadIT) 2.0 जैसी परियोजनाएं औद्योगिक रूपांतरण और तकनीकी नवाचार का समर्थन करती हैं।

अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत जलवायु वार्ताओं में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है, और विकसित देशों से तकनीकी हस्तांतरण तथा विकासशील देशों को वित्तीय सहायता देने संबंधी प्रतिबद्धताओं को पूरा करने की वकालत करता है। जलवायु समझौतों को आकार देने में भारत की यह नेतृत्वकारी भूमिका, जलवायु परिवर्तन के प्रति वैश्विक और समावेशी प्रतिक्रिया को बढ़ावा देने की उसकी प्रतिबद्धता को दर्शाती है तथा भारत को वैश्विक पर्यावरणीय प्रगति में एक प्रमुख भागीदार के रूप में स्थापित करती है।

निरंतर बनी रहने वाली चुनौतियां: भारत की जलवायु कूटनीति कई महत्वपूर्ण चुनौतियों का सामना कर रही है। पहली चुनौती यह है कि जलवायु से संबंधित संगठनों पर वैश्विक ध्यान मुख्य रूप से शमन (mitigation) पर केंद्रित रहता है, जबकि अनुकूलन (adaptation) और लचीलापन (resilience) जैसे उपायों पर अपेक्षाकृत कम जोर दिया जाता है। ऐसे में भारत जैसे देश के लिए एक अधिक विकेंद्रीकृत दृष्टिकोण अपनाना आवश्यक हो गया है, जो विभिन्न क्षेत्रों और समुदायों की विशिष्ट जरूरतों को पूरा कर सके, विशेष रूप से उन क्षेत्रों की, जो कम विकसित और अधिक संवेदनशील हैं। दूसरी चुनौती यह है कि अंतरराष्ट्रीय जलवायु राजनीति में पुराने सिद्धांतों और शक्ति संघर्षों के कारण प्रभावी सामूहिक कार्रवाई बाधित होती है, जिससे भारत को वैश्विक जलवायु पहलों को आगे बढ़ाते हुए इन जटिलताओं से कुशलतापूर्वक निपटने हेतु बाध्य होना पड़ता है, ताकि वह संतुलित और रचनात्मक नेतृत्व प्रदान कर सके। तीसरी चुनौती ऐसे तंत्र स्थापित करने की शीघ्र आवश्यकता है जो जलवायु परिवर्तन से सबसे अधिक प्रभावित और कमजोर समुदायों का समुचित प्रतिनिधित्व तथा सुरक्षा सुनिश्चित कर सके। जलवायु शासन में एक अग्रणी देश के रूप में, भारत को समावेशी और संवेदनशील नीतियां विकसित करनी होंगी, जो स्थानीय, क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्तरों पर विभिन्न आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए वैश्विक जलवायु राजनीति में सकारात्मक परिवर्तन ला सकें और समान एवं सतत विकास को प्रोत्साहित कर सकें।

वैश्विक परमाणु व्यवस्था: भारत की परमाणु नीति ने एक जटिल वैश्विक परिदृश्य में अपनी दिशा तय की है, जिसमें परमाणु निरस्त्रीकरण की दिशा में हुई महत्वपूर्ण प्रगति, परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (एनएसजी) की सदस्यता प्राप्त करने के प्रयास, और संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस तथा चीन के बीच उभरती त्रिध्रुवीय परमाणु प्रतिस्पर्धा जैसी महत्वपूर्ण गतिविधियां शामिल हैं। भारत ने हमेशा से सार्वभौमिक, गैर-भेदभावपूर्ण और नेतृत्व योग्य परमाणु निरस्त्रीकरण का समर्थन किया है। इस प्रतिबद्धता को उसने संयुक्त राष्ट्र महासभा के प्रस्ताव 68/32 का समर्थन देकर और भी मजबूती प्रदान की, जिसके माध्यम से वर्ष 2014 से 26 सितंबर को “परमाणु हथियारों के पूर्ण उन्मूलन का अंतरराष्ट्रीय दिवस” घोषित किया। 2014 में सत्ता परिवर्तन के बावजूद भारत ने इस रुख को निरंतर बनाए रखा है। साथ ही, भारत ने प्रधानमंत्री के नेतृत्व में द्विपक्षीय संबंधों और कूटनीतिक प्रयासों के माध्यम से परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (एनएसजी) में सदस्यता प्राप्त करने के लिए सक्रिय रूप से प्रयास किए हैं। हालांकि, पाकिस्तान के लिए एनएसजी की समान सदस्यता की मांग से प्रेरित चीन के विरोध के कारण भारत की सदस्यता प्रक्रिया बाधित हुई है। त्रिध्रुवीय परमाणु प्रतिस्पर्धा के संदर्भ में, भारत ने चीन के तीव्र परमाणु प्रसार और क्षेत्रीय तनावों के बीच रणनीतिक संयम की नीति बनाए रखी है। इसके साथ ही, भारत रणनीतिक स्थिरता बनाए रखने और वैश्विक परमाणु अप्रसार प्रयासों को सुदृढ़ करने पर भी निरंतर ध्यान केंद्रित कर रहा है।

निरंतर बनी रहने वाली चुनौतियां: परमाणु हथियारों के निषेध पर संधि (टीएनपीडब्ल्यू), जिसका उद्देश्य परमाणु हथियारों पर पूर्ण प्रतिबंध लगाना है, का भारत ने कड़ा विरोध किया है। भारत का मानना है कि यह संधि परमाणु निरस्त्रीकरण के स्थापित ढांचे को कमजोर करती है, इसलिए भारत ने इस संधि से संबंधित वार्ताओं में भाग न लेने का निर्णय लिया और इसके स्थान पर सार्वभौमिक एवं सत्यापन योग्य निरस्त्रीकरण की वकालत की। इस संधि, जिसे 160 देशों द्वारा समर्थन दिया जा रहा है, को परमाणु-सशस्त्र राष्ट्रों और उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) के कई सदस्यों का समर्थन नहीं मिला है, जो वैश्विक परमाणु नीति में एक विवादास्पद विभाजन को दर्शाता है। इसके अतिरिक्त, अगस्त 2019 में अमेरिका द्वारा इंटरमीडिएट-रेंज न्यूक्लियर फोर्सेज (आईएनएफ) संधि से हटने के कारण परमाणु हथियार नियंत्रण की गतिशीलता में बदलाव आया है, जिससे बढ़ते भू-राजनीतिक तनावों के बीच नई मिसाइल प्रणालियों के विकास को बढ़ावा मिला है। बाइडेन प्रशासन द्वारा हथियार नियंत्रण वार्ताओं को पुन: शुरू करने के प्रयासों के बावजूद, रूस के साथ व्यापक भू-राजनीतिक विवादों ने इस प्रगति को बाधित किया है। इसके अलावा, भारत ने परमाणु हथियारों के प्रयोग के खिलाफ अपना कड़ा रुख बरकरार रखा है, जो विशेष रूप से रूस-यूक्रेन संघर्ष के दौरान स्पष्ट हुआ, जब उसने परमाणु जोखिमों की निंदा की और मानवीय दृष्टिकोणों पर जोर दिया। यह रुख परमाणु स्थिरता के प्रति भारत की प्रतिबद्धता और परमाणु-सशस्त्र देशों के बीच उसके जिम्मेदार आचरण को रेखांकित करता है।

उभरती और महत्वपूर्ण प्रौद्योगिकी

उभरती और महत्वपूर्ण प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत की विदेश नीति पिछले एक दशक में इसकी अंतरराष्ट्रीय रणनीति का एक महत्वपूर्ण पहलू बन गई है। विगत एक दशक में, भारत ने रणनीतिक रूप से अंतरराष्ट्रीय साझेदारियां विकसित करने और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में खुद को एक प्रमुख वैश्विक ताकत के रूप में स्थापित करने के लिए अपने घरेलू तकनीकी कौशल को बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित किया है। इस प्रयास का केंद्रबिंदु भारत-अमेरिका की साझेदारी है, जिसे मई 2022 में महत्वपूर्ण और उभरती प्रौद्योगिकियों के लिए पहल (iCET) के माध्यम से औपचारिक रूप दिया गया। यह साझेदारी कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI), क्वांटम कंप्यूटिंग, अंतरिक्ष प्रौद्योगिकियों और अगली पीढ़ी की दूरसंचार प्रणालियों जैसी उन्नत प्रौद्योगिकियों पर सहयोग को बढ़ावा देती है। इस साझेदारी ने यूके, जापान, ऑस्ट्रेलिया और फ्रांस जैसे सहयोगियों के साथ समान समझौतों तथा व्यापार और प्रौद्योगिकी परिषद (टीटीसी) के माध्यम से यूरोपीय संघ के साथ सहयोग का मार्ग प्रशस्त किया है, जिससे घरेलू नवाचार को बढ़ावा देने के माध्यम से भारत की “आत्मनिर्भर भारत” पहल को समर्थन मिला है। द्विपक्षीय प्रयासों के अलावा, भारत ने 5G/6G प्रौद्योगिकियों, क्वांटम कंप्यूटिंग और हरित प्रौद्योगिकियों में चुनौतियों और अवसरों से निपटने के लिए क्वाड और I2U2 समूह जैसे तकनीक-केंद्रित लघु बहुपक्षीय सहयोग समूहों में सक्रिय रूप से भाग लिया है। इसके अलावा, भारत G20 डिजिटल अर्थव्यवस्था की मंत्रियों की बैठक जैसे मंचों पर एआई के जिम्मेदार प्रयोग की वकालत और साइबरस्पेस की स्थिरता के लिए मजबूत कानूनी ढांचे को बढ़ावा देने के माध्यम से वैश्विक तकनीकी शासन को सक्रिय रूप से आकार दे रहा है। भारत की डिजिटल सार्वजनिक अवसंरचना (Digital Public Infrastructure) वैश्विक स्तर पर डिजिटल अर्थव्यवस्थाओं को सशक्त बनाने के लिए ओपन-सोर्स और अंतर-संचालनीय समाधान प्रदान करती है, जबकि ‘उत्तरदायी तकनीक’ (accountable tech) प्रथाओं के लिए इसका समर्थन तकनीकी क्षेत्र में स्थानीय संदर्भ और जिम्मेदारी पर जोर देता है।

निरंतर बनी रहने वाली चुनौतियां: वैश्विक तकनीकी परिदृश्य धीरे-धीरे प्रमुख शक्तियों, विशेष रूप से अमेरिका और चीन, के बीच विभाजित होता जा रहा है, जहां अमेरिका साइबरस्पेस शासन के लिए बहु-हितधारक दृष्टिकोण की वकालत करता है, जबकि चीन राज्य-केंद्रित मॉडल को बढ़ावा देता है। यह विभाजन आधुनिक प्रौद्योगिकी के जिम्मेदार प्रयोग को बढ़ावा देने और एक सुसंगत वैश्विक तकनीकी शासन तंत्र स्थापित करने के भारत के प्रयासों को जटिल बना रहा है। इसके अलावा, चीन की डिजिटल सिल्क रोड (डीएसआर) पहल, जिसका उद्देश्य हिंद-प्रशांत और अफ्रीका जैसे विकासशील क्षेत्रों में अपने तकनीकी प्रभाव का विस्तार करना है, अकसर भारत के खुले और समावेशी तकनीकी वातावरण के दृष्टिकोण के विपरीत होती है। यद्यपि भारत उत्तरदायी तकनीक और डेटा स्थानीयकरण पर जोर देता है, तथापि इसकी विकासात्मक और सामाजिक आवश्यकताओं को संबोधित करने के उद्देश्य से, किंतु कभी-कभी पश्चिमी पर्यवेक्षकों द्वारा इसे 'डिजिटल संप्रभुता' के दृष्टिकोण के रूप में देखा जाता है, जो मुक्त डेटा प्रवाह के सिद्धांत के साथ टकराव पैदा करता है। इन बाधाओं के बावजूद, भारत ने समावेशी डिजिटल विकास को बढ़ावा देते हुए और ग्लोबल साउथ के हितों का प्रतिनिधित्व करते हुए, वैश्विक तकनीकी एजेंडे पर उल्लेखनीय प्रभाव डाला है। साथ ही इन जटिल भू-राजनीतिक और तकनीकी परिस्थितियों में संतुलन बनाए रखने का प्रयास भी जारी रखा है।

विकास सहयोग: पिछले एक दशक में विकास से संबंधित कूटनीति में एक बदलाव आया है, जिसमें विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में सामाजिक-आर्थिक समृद्धि के लिए सहयोगात्मक ढांचे के निर्माण पर जोर दिया गया है। इस परिवर्तन को दीर्घकालिक रूप में कूटनीतिक सद्भावना स्थापित करने और अपनी पहुंच बढ़ाने के एक माध्यम के रूप में देखा जा रहा है। एक योग्य विकास सहयोगी के रूप में भारत को वैश्विक स्तर पर अपनी मांग-आधारित, स्वाभाविक और आवश्यकता-आधारित साझेदारियों के लिए मान्यता मिली है, जो कि चीनी और पश्चिमी मॉडलों से भिन्न हैं। यह दृष्टिकोण ग्लोबल साउथ के लिए उपयुक्त है, जो नवीन समाधानों और दीर्घकालिक गठबंधनों की तलाश में है, क्योंकि यह दीर्घकालिक साझेदारियों के लिए एक व्यवहार्य पारिस्थितिकी तंत्र प्रदान करता है।

वर्तमान में जारी बहुसंकटों (कई विनाशकारी घटनाओं का एक साथ घटित होना) ने निम्न आय वाले देशों, अल्पविकसित देशों (एलडीसी) तथा छोटे द्वीपीय विकासशील देशों की भेद्यता (अतिसंवेदनशीलता) में और अधिक वृद्धि कर दी है। सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) के वित्तपोषण के संदर्भ में इन देशों के लिए सततता संबंधी चुनौतियां अत्यधिक बढ़ गई हैं, जो 2020 के 2.5 अरब अमेरिकी डॉलर से बढ़कर 2023 में 4.2 अरब अमेरिकी डॉलर हो गई। इस संदर्भ में, ग्लोबल साउथ के लिए भारत के समर्थन की प्रमुख उपलब्धियों में से एक 2023 में G20 की अध्यक्षता थी।

भारत ने वैश्विक विमर्श को पारंपरिक सुरक्षा से गैर-पारंपरिक सुरक्षा और विकास संबंधी चुनौतियों की ओर मोड़ा है। अपनी G20 अध्यक्षता के दौरान, भारत ने विकास, समावेशिता और समानता को बढ़ावा देने पर चर्चाओं की शुरुआत की। भारत दक्षिण-संचालित भागीदारी पर चर्चा का नेतृत्व कर रहा है और पश्चिमी दाता-प्रधान मॉडल (Western donor-led model) के विकल्प के रूप में कम लागत वाले विकास समाधान पेश कर रहा है।

भारत कई मुक्त व्यापार समझौतों (एफटीए) पर हस्ताक्षर करके अपने विकास कूटनीति पोर्टफोलियो में विविधता ला रहा है, जैसे कि 2021 में भारत-मॉरीशस व्यापक आर्थिक सहयोग और साझेदारी समझौता (सीईसीपीए), 2022 में भारत-यूएई व्यापक आर्थिक साझेदारी समझौता (सीईपीए) और भारत-ऑस्ट्रेलिया आर्थिक सहयोग और व्यापार समझौता (सीईसीटीए)। हाल में किए गए प्रमुख समझौतों में 2024 में भारत और यूरोपीय मुक्त व्यापार संघ (इएफटीए) राष्ट्रों की सरकारों के बीच व्यापार और आर्थिक साझेदारी समझौता (टीइपीए), तथा भारत की G20 की अध्यक्षता के दौरान घोषित भारत-मध्य पूर्व-यूरोप आर्थिक गलियारा (आईएमइसी) शामिल हैं।

निरंतर बनी रहने वाली चुनौतियां:  भारत को सतत वित्तपोषण के क्षेत्र में एक बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है, लेकिन हाल ही में हुए व्यापार समझौते निजी क्षेत्र से निवेश और वित्त को आकर्षित कर सकते हैं। 2022 में, कुल शुद्ध निजी संपत्ति 454.4 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर थी, और 2027 तक इसमें 38 प्रतिशत की वृद्धि होने के फलस्वरूप इसके 629 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुंचने की संभावना है। परोपकार (लोकोपकार), एजेंडा 2030 के लिए अतिरिक्त वित्त जुटाने में मदद कर सकता है, जिसमें भारत का विविधतापूर्ण परोपकारी समूह महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।

भू-राजनीति और भू-अर्थशास्त्र वर्तमान विकास परिदृश्य के आवश्यक घटक हैं। भारत को संसाधनों की कमी और सीमित पहुंच क्षमताओं के कारण हिंद-प्रशांत क्षेत्र के देशों से निपटने में चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। भारत को इस क्षेत्र के लिए एक रणनीति तैयार करनी चाहिए, क्योंकि कई देश अपनी पहुंच बढ़ाने का प्रयास कर रहे हैं, जबकि क्षेत्र के अन्य देश इस हित को प्रभावी ढंग से प्रबंधित करने के तरीके की तलाश कर रहे हैं।

कोविड-19 महामारी ने सतत विकास में कनेक्टिविटी (संपर्क) के महत्व को स्पष्ट रूप से उजागर किया है। भारत को विकासशील देशों में बहुआयामी लचीलापन विकसित करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, जिसमें डिजिटल बुनियादी ढांचे को सुदृढ़ करना, कम लागत वाली ऊर्जा पाइपलाइनों की स्थापना, ट्रांस-वे और सड़कों का निर्माण, विद्युत अंतरण, तथा लोगों के बीच आपसी संपर्क को प्रोत्साहित करना शामिल है। यह प्रयास भविष्य में लचीले और सशक्त समाजों के निर्माण में सहायक सिद्ध होगा, जिससे इस वैश्विक हित का प्रभावी ढंग से प्रबंधन संभव हो सकेगा।

संपर्क (कनेक्टिविटी): पिछले दशक में भारत की आर्थिक समृद्धि ने वैश्विक और क्षेत्रीय संपर्क पर नए सिरे से ध्यान केंद्रित किया है, विशेष रूप से, ‘ऐक्ट ईस्ट’ और ‘नेबरहुड फर्स्ट’ नीतियों के माध्यम से। भारत की संपर्क रणनीति लचीली आपूर्ति श्रृंखलाओं, आर्थिक सुरक्षा, क्षेत्रीय एकीकरण और अंतरराष्ट्रीय व्यापार पर केंद्रित है।

दक्षिण एशियाई क्षेत्र की एकजुटता के लिए भारत की रणनीति द्विपक्षीय आर्थिक सहयोग के माध्यम से बहुविध संपर्क संबंधों को बढ़ावा देने पर आधारित है। 2014 से 2024 के बीच, भारत ने बांग्लादेश, भूटान, म्यांमार, मालदीव, नेपाल और श्रीलंका को अनुदानों/ऋणों और 37 लाइन ऑफ क्रेडिट (LoCs) के माध्यम से क्रमशः 9.57 बिलियन अमेरिकी डॉलर और 14.4 बिलियन अमेरिकी डॉलर की वित्तीय सहायता प्रदान की है। इस सहायता के माध्यम से विद्युत उत्पादन, परिवहन और बंदरगाह अवसंरचना, तेल और गैस पाइपलाइन, तथा संचार अवसंरचना जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में 150 परियोजनाएं प्रभावित हुईं, जिसके परिणामस्वरूप बांग्लादेश (10 बिलियन अमेरिकी डॉलर), भूटान (6.3 बिलियन अमेरिकी डॉलर) और नेपाल (1.65 बिलियन अमेरिकी डॉलर) में भारत का सबसे बड़ा विकास पोर्टफोलियो मौजूद है। भारत ने अपने पड़ोसी देशों में सामाजिक बुनियादी ढांचे का भी निर्माण किया है। भारत सरकार ने भूटान, बांग्लादेश, मालदीव और नेपाल में उच्च प्रभाव वाली सामुदायिक विकास परियोजनाएं (HICDPs) कार्यक्रम के तहत 225 मिलियन अमेरिकी डॉलर की लागत वाली लगभग 1,250 परियोजनाएं पूरी की हैं, जिनमें कृषि, ग्रामीण और शहरी विकास, स्वास्थ्य और शिक्षा क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित किया गया है।

दक्षिण एशिया के आगे, भारत की वैश्विक संपर्क संबंधी महत्वाकांक्षाओं में दक्षिण एशिया में एक मल्टीमॉडल ईस्ट-वेस्ट एशिया कॉरिडोर का निर्माण करना है, जिसमें म्यांमार, थाईलैंड और बांग्लादेश, तथा भारत-मध्य पूर्व-यूरोप आर्थिक गलियारा (आईएमईसी) और पश्चिम में अंतरराष्ट्रीय उत्तर-दक्षिण परिवहन गलियारे (आईएनएसटीसी) को जोड़ना शामिल है। भारत इन वैकल्पिक पारगमन गलियारों को संचालित करने के लिए म्यांमार, थाईलैंड और बांग्लादेश जैसे देशों के साथ सक्रिय सहयोग कर रहा है। प्रमुख पहलों में आईएमईसी समझौता, भारत-ईरान चाबहार बंदरगाह के दीर्घकालिक संचालन के लिए अनुबंध, म्यांमार में सित्तवे बंदरगाह, और भारत-म्यांमार-थाईलैंड त्रिपक्षीय राजमार्ग का निर्माण शामिल हैं। ये वैकल्पिक पारगमन गलियारे—जैसे कि चाबहार मार्ग, जो स्वेज नहर का एक दीर्घकालिक विकल्प प्रदान करता है, और दक्षिण-पूर्व एशिया से जुड़ने वाले अन्य गलियारे भारत के व्यापार मार्गों और आपूर्ति श्रृंखलाओं में विविधता लाएंगे।

निरंतर बनी रहने वाली चुनौतियां: भारत को क्षेत्रीय संपर्क के क्षेत्र में आर्थिक चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, 2021 में दक्षिण एशियाई व्यापार, क्षेत्र के कुल व्यापार का केवल 5 प्रतिशत था। सीमा शुल्क और सुरक्षा संबंधी समस्याओं के कारण भारतीय कंपनियों के लिए ब्राजील जैसे दक्षिण अमेरिकी देशों से व्यापार करना अपेक्षाकृत किफायती पड़ता है। विश्व बैंक का अनुमान है कि दक्षिण एशियाई व्यापार अपनी संभावित क्षमता का केवल आधा ही उपयोग कर रहा है। विश्वास की कमी, कमजोर क्षेत्रीय सुरक्षा तंत्र और प्रभावी मुक्त व्यापार समझौतों की कमी जैसे मुद्दों का समाधान करना भारत की क्षेत्रीय संपर्क अवसंरचना के लिए महत्वपूर्ण है।

भारत की विदेशी परियोजनाओं को धीमी प्रगति, सुस्त क्रियान्वयन और नौकरशाही अड़चनों का सामना करना पड़ता है। इनमें भूमि अधिग्रहण, कार्य स्थितियां, वैधानिक देरी, वीजा संबंधी मुद्दे, परियोजना के हस्तांतरण में देरी, विवाद समाधान तंत्र की अक्षमता, और अपर्याप्त धन वितरण जैसी चुनौतियां शामिल हैं। इन समस्याओं के कारण नेपाल पुलिस अकादमी परियोजना, नेपाल-भारत एकीकृत चेक पोस्ट, बांग्लादेश में पायरा जीर्णोद्धार परियोजना, ईरान के साथ चाबहार बंदरगाह समझौता और अफगानिस्तान में सलमा डैम जैसी परियोजनाएं समय पर पूरी नहीं हो सकीं।

चीन ने 2010 से 2024 के बीच भारत के पड़ोसी देशों में लगभग 150 बिलियन अमेरिकी डॉलर का निवेश किया है, जिसमें 2023 तक दक्षिण एशिया में पूर्ण परियोजनाओं का अनुबंध कारोबार 200 बिलियन अमेरिकी डॉलर था। चीन द्वारा किए गए प्रमुख निवेश बांग्लादेश, पाकिस्तान, म्यांमार, नेपाल और श्रीलंका में परिवहन, ऊर्जा और वित्त के क्षेत्रों में केंद्रित हैं। भारत के दो पड़ोसी देशों—पाकिस्तान (73.4 बिलियन अमेरिकी डॉलर) और म्यांमार (26.2 बिलियन अमेरिकी डॉलर)—को बीजिंग के दक्षिण एशियाई ऋणों और निवेशों का सबसे बड़ा हिस्सा प्राप्त हुआ है। चीनी सरकारी कंपनियां दक्षिण एशिया के सात बंदरगाहों और वृहद हिंद महासागर क्षेत्र के 10 बंदरगाहों का प्रबंधन करती हैं, जिनमें से 11 बंदरगाहों का निर्माण उन्होंने स्वयं किया है।

भारत को पड़ोसी क्षेत्रों में हो रहे चीनी निवेश का प्रभावी ढंग से मुकाबला करना चाहिए, क्योंकि ये निवेश आर्थिक से अधिक रणनीतिक महत्व के हैं और चीन के क्षेत्रीय प्रभाव को मजबूत करते हैं। आने वाले दशक में भारत को चुनौतियों और अवसरों दोनों का सामना करना पड़ेगा। अपने संपर्क लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए भारत को आंतरिक नौकरशाही और वित्तीय अड़चनों, क्षेत्रीय राजनीतिक अविश्वास, और बाहरी भू-राजनीतिक चुनौतियों से प्रभावी ढंग से निपटना होगा।

आगामी वर्षों में भारत की विदेश नीति के लिए आगे की राह

  • भारत का लक्ष्य संयुक्त राज्य अमेरिका और संयुक्त अरब अमीरात जैसी प्रमुख वैश्विक शक्तियों के साथ अपने मजबूत संबंधों को और अधिक सुदृढ़ करना है। G20 शिखर सम्मेलन और “वॉयस ऑफ ग्लोबल साउथ समिट्स” के सफल आयोजन ने वैश्विक शासन में भारत की भूमिका को मजबूत किया है। जापान, ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के साथ रणनीतिक साझेदारियों के माध्यम से अपने प्रभाव का विस्तार करना भारत की प्रमुख प्राथमिकताओं में शामिल रहेगा।
  • भारत वैश्विक शक्तियों के साथ अपने संबंधों में संतुलन बनाकर अपनी रणनीतिक स्वायत्तता बनाए रखने के लिए प्रतिबद्ध है। पश्चिमी दबाव के बावजूद, भारत रूस के साथ अपने संबंधों को जारी रखेगा और ईरान के साथ दीर्घकालिक चाबहार परियोजना जैसे समझौतों को बनाए रखेगा।
  • ‘भारत फर्स्ट’ सिद्धांत राजनीतिक, सुरक्षा, आर्थिक, तकनीकी और सांस्कृतिक क्षेत्रों में भारत के राष्ट्रीय हितों को प्राथमिकता देता है। इसका उद्देश्य भारत की बढ़ती आर्थिक शक्ति का लाभ उठाकर वैश्विक मंच पर उसकी प्रतिष्ठा को बढ़ाना और उसके हितों को प्रभावी रूप से स्थापित करना है।
  • वैश्विक उत्तरदायित्व पर बल देते हुए, 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की अवधारणा भारत को 'विश्वबंधु' (संपूर्ण विश्व का मित्र) के रूप में स्थापित करती है और वैश्विक चिंताओं, विशेष रूप से ग्लोबल साउथ को प्रभावित करने वाले मुद्दों के समाधान के प्रति भारत की प्रतिबद्धता को दर्शाती है।
  • भारत की ‘पड़ोसी प्रथम’ (Neighbourhood First) नीति भविष्य में भी केंद्र में बनी रहेगी, जिसका उद्देश्य बांग्लादेश, भूटान, नेपाल और श्रीलंका जैसे पड़ोसी देशों के साथ मजबूत संबंध बनाए रखना, और साथ ही क्षेत्र में चीन के बढ़ते प्रभाव से उत्पन्न चुनौतियों का प्रबंधन करना भी इसका एक महत्वपूर्ण पहलू है।
  • मालदीव द्वारा हाल ही में चीन की ओर अपना झुकाव प्रदर्शित करने के बावजूद, भारत उसके प्रति सद्भावना की नीति जारी रखेगा। पाकिस्तान के साथ संबंधों में चुनौतियां बनी रहेंगी, और भारत की नीति कूटनीति तथा राष्ट्रीय सुरक्षा चिंताओं के बीच संतुलन बनाए रखने पर केंद्रित रहेगी।
  • भारत का हिंद-प्रशांत और हिंद महासागर क्षेत्रों पर जोर चीन की बढ़ती उपस्थिति से प्रेरित है। सेशेल्स और मॉरीशस के नेताओं को दिए गए निमंत्रण क्षेत्रीय शांति और स्थिरता के प्रति भारत की प्रतिबद्धता दर्शाते हैं।
  • भारत का लक्ष्य रणनीतिक गठबंधनों और साझेदारियों के माध्यम से हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अपने प्रभाव में वृद्धि करना है, ताकि हिंद महासागर में चीन के सैन्य और आर्थिक प्रभाव से उत्पन्न चुनौतियों का सामना किया जा सके।
  • यूरोपीय संघ (ईयू), ब्रिटेन (यूके) और गल्फ कोऑपरेशन काउंसिल (जीसीसी) के साथ मुक्त व्यापार समझौतों (एफटीए) के लिए संवाद को प्राथमिकता दी जाएगी। इन समझौतों के सफलतापूर्वक पूरा होने से वैश्विक आर्थिक ढांचे में भारत की स्थिति मजबूत होगी।
  • भारत आर्थिक सहयोग और व्यापार को बढ़ाने के लिए भारत-मध्य पूर्व-यूरोप आर्थिक गलियारा (आईएमईईसी), I2U2 समूह तथा समृद्धि के लिए हिंद-प्रशांत आर्थिक ढांचा (आईपीईएफ) जैसी पहलों पर ध्यान केंद्रित करेगा।
  • भारत वैश्विक मुद्दों जैसे आतंकवाद, परमाणु प्रसार, और पर्यावरणीय चिंताओं को संबोधित करना जारी रखेगा, और संकटों को हल करने के लिए संवाद और कूटनीति की वकालत करेगा, जिनमें यूक्रेन और गाजा के संकट भी शामिल हैं।
  • भारत की बढ़ती आर्थिक और भू-राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं का समर्थन करने के लिए बुनियादी ढांचे में सुधार, तकनीकी उन्नति और विनिर्माण क्षमता पर जोर देना महत्वपूर्ण होगा।
  • भारत अंतरराष्ट्रीय नीतियों को प्रभावित करने के लिए G7, ब्रिक्स और शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) जैसे मंचों में सक्रिय रूप से शामिल होगा। रूस और चीन जैसे देशों के साथ रणनीतिक संवाद भारत के वैश्विक हितों को बढ़ावा देने और जटिल रिश्तों को प्रबंधित करने के लिए महत्वपूर्ण होंगे।

निष्कर्ष

भारत की विदेश नीति एक रणनीतिक संतुलन पर आधारित है, जो राष्ट्रीय हितों को वैश्विक जिम्मेदारियों के साथ संरेखित करती है। संयुक्त राज्य अमेरिका जैसी प्रमुख शक्तियों के साथ अपने संबंध मजबूत कर और जापान, ऑस्ट्रेलिया, तथा दक्षिण-पूर्व एशिया के साथ साझेदारियों के माध्यम से प्रभाव बढ़ाकर, भारत ने वैश्विक शासन में अपनी भूमिका को मजबूत किया है। रणनीतिक स्वायत्तता और “भारत फर्स्ट” के सिद्धांत भारत की विदेश नीति को दिशा प्रदान करते हैं, जिससे उसे रूस और ईरान सहित वैश्विक शक्तियों के साथ जटिल संबंधों को संतुलित रूप से प्रबंधित करने में मदद मिलती है।

वैश्विक जिम्मेदारियों के प्रति भारत की प्रतिबद्धता ग्लोबल साउथ के समर्थन और क्षेत्रीय स्थिरता में उसकी सक्रिय भूमिका में स्पष्ट रूप से दिखाई देती है, विशेष रूप से हिंद-प्रशांत और हिंद महासागरीय क्षेत्रों में। आगे बढ़ते हुए, भारत को अपने सागर (SAGAR) परियोजना के दृष्टिकोण और ऐक्ट ईस्ट नीति को और सुदृढ़ करना होगा, ताकि समान सोच वाले समुद्री साझेदारों के साथ मिलकर हिंद-प्रशांत क्षेत्र में सुरक्षा और स्थिरता सुनिश्चित की जा सके। आतंकवाद और पर्यावरणीय मुद्दों जैसी वैश्विक चुनौतियों के समाधान के प्रयासों को बहुपक्षीय मंचों में सक्रिय भागीदारी और आर्थिक सहयोग को बढ़ाने वाली पहलों के माध्यम से सशक्त किया जा रहा है।

प्रौद्योगिकी क्षेत्र में भारत समावेशी विकास की वकालत करते हुए वैश्विक तकनीकी शासन को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभा रहा है, और संयुक्त राष्ट्र (यूएन) तथा विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के साथ इसकी सहभागिता बहुपक्षवाद के प्रति इसकी प्रतिबद्धता को दर्शाता है। कुल मिलाकर, भारत की विदेश नीति की प्रमुख विशेषता इसका व्यावहारिक और मुखर दृष्टिकोण है, जो उसे भविष्य की वैश्विक व्यवस्था को आकार देने में एक प्रमुख भूमिका निभाने वाले देश के रूप में स्थापित करता है।

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