भारत, विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र, में एक समृद्ध और विविधतापूर्ण राजनीतिक परिदृश्य विद्यमान है। हालांकि, इसका एक पहलू, जो विगत कुछ समय से सबका ध्यान आकर्षित कर रहा है, वह है संसद सदस्यों (सांसद) के लिए आवश्यक न्यूनतम आयु। भारत के 2024 के साधारण निर्वाचन के परिणामों ने इस लोक सभा (निम्न सदन) को अब तक की सबसे प्रौढ़/वृद्ध लोक सभा बना दिया, जिसमें सांसदों की औसत आयु 56 वर्ष है। इसके कारण आयु की असमानता तथा प्रतिनिधित्व के बारे में चिंताएं बढ़ गई हैं। इस पहलू को संबोधित करने के लिए कई प्रस्ताव पेश किए गए हैं। आम आदमी पार्टी (आप) के सांसद राघव चड्ढा ने यह सुझाव दिया कि राज्य सभा (उच्च सदन) के चुनाव लड़ने के लिए प्रत्याशियों की न्यूनतम आयु 25 वर्ष से घटाकर 21 वर्ष कर दी जानी चाहिए। कांग्रेस के सांसद शशि थरूर ने प्रस्तावित किया कि लोक सभा की 10 सीटों को 35 वर्ष से कम आयु के सांसदों के लिए आरक्षित किया जाए। कार्मिक, लोक शिकायत, विधि एवं न्याय से संबंधित संसद की स्थायी समिति द्वारा विधान सभा के चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशियों की आयु को 25 वर्ष से कम करके 18 वर्ष करने की सिफारिश की गई।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
डॉ. बी. आर. अंबेडकर द्वारा अनुच्छेद 84 को, 19 मई, 1949 को संविधान सभा में, संविधान के प्रारूप में एक संशोधन के रूप में, पुरःस्थापित किया गया था, जो सांसदों की अर्हता संबंधी मानदंडों को स्पष्ट करता है। अंबेडकर ने लोक सभा तथा राज्य सभा के सदस्यों की न्यूनतम आयु क्रमशः 25 वर्ष एवं 35 वर्ष निर्धारित करने का प्रस्ताव रखा। उनका मानना था कि केवल मताधिकार की आयु, जो उस समय 21 वर्ष थी, संसदीय कार्यों के लिए अर्ह होने हेतु अपर्याप्त थी। यद्यपि लोक सभा के सांसदों के लिए 25 वर्ष को न्यूनतम आयु स्वीकार कर लिया गया, तथापि संविधान सभा के कुछ सदस्यों ने तर्क दिया कि राज्य सभा के सदस्यों के लिए 35 वर्ष की आयु सीमा बहुत अधिक थी।
जब संविधान सभा द्वारा न्यूनतम आयु के संबंध में संविधान के प्रारूप में संशोधन किया गया, तब दुर्गाबाई देशमुख, एक प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी एवं महिला अधिकारों की पक्षधर, ने राज्य सभा की सदस्यता के लिए न्यूनतम आयु को 35 वर्ष से घटाकर 30 वर्ष करने हेतु संशोधन करने का प्रस्ताव रखा। उन्होंने यह तर्क दिया कि बुद्धिमत्ता केवल आयु पर निर्भर नहीं करती, और युवा व्यक्ति, जो एक वैविध्यपूर्ण पाठ्यक्रम में शिक्षित होते हैं, नागरिक/सामाजिक उत्तरदायित्वों को संभालने में सक्षम हैं। उनके प्रस्ताव के समर्थन में सुप्रसिद्ध समाजवादी नेता, एच. वी. कामत ने विलियम पिट, जो 24 वर्ष की आयु में ही यूनाइटेड किंगडम के प्रधानमंत्री बन गए थे, का उदाहरण देते हुए, संसद के दोनों सदनों के सदस्यों की आयु एक समान, अर्थात, 21 वर्ष करने का सुझाव दिया। इस संशोधन को स्वतंत्रता सेनानियों, शिब्बन लाल सक्सेना तथा राज्य सभा के पूर्व सांसद तजामुल हुसैन जैसे प्रसिद्ध व्यक्तियों का समर्थन प्राप्त हुआ, और अंततः इसे स्वीकार कर लिया गया।
संविधान में सम्मिलित अनुच्छेद 84 तथा अनुच्छेद 173, क्रमशः लोक सभा तथा विधान सभा और राज्य सभा एवं राज्य विधान परिषद में प्रवेश करने के लिए न्यूनतम आयु क्रमशः 25 एवं 30 वर्ष निर्दिष्ट करते हैं।
आरंभ में अंबेडकर ने उपराष्ट्रपति के लिए, जो राज्य सभा की अध्यक्षता करता है, 35 वर्ष की आवश्यक आयु से असंगति का हवाला देते हुए राज्य सभा के लिए न्यूनतम आयु कम करने का विरोध किया। हालांकि, आगे चलकर वे दुर्गाबाई द्वारा प्रस्तावित संशोधन, जिसमें न्यूनतम आयु 30 वर्ष निर्धारित की गई थी, से समझौता करने के लिए तैयार हो गए, जिसके बाद संविधान सभा द्वारा उसे अपना लिया गया। तत्पश्चात आयु के इस मानदंड को राज्य विधान-मंडलों, राज्य विधान सभा के लिए 25 वर्ष और राज्य विधान परिषद के लिए 30 वर्ष, के लिए भी लागू कर दिया गया।
वर्तमान में आवश्यक आयु
वर्तमान में, भारत में, चुनाव लड़ने के लिए एक निश्चित आयु की आवश्यकता होती है। लोक सभा या विधान सभा के निर्वाचन में चुनाव लड़ने के लिए अर्हित होने हेतु, किसी व्यक्ति की न्यूनतम आयु 25 वर्ष होनी चाहिए। राज्य सभा अथवा राज्य विधान परिषद के चुनावों के लिए आवश्यक न्यूनतम आयु 30 वर्ष होनी चाहिए। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 84 के अंतर्गत निर्वाचन प्रक्रिया में भाग लेने वाले व्यक्ति के लिए आयु संबंधी इन शर्तों को पूरा करना आवश्यक है। जिस आयु में कोई व्यक्ति मतदाता के रूप में अपना पंजीकरण करा सकता है, वह 18 वर्ष है ।
लोक सभा में पीढ़ीगत सम्मिलन
पहली लोक सभा, 1952 में निर्वाचित, में उल्लेखनीय रूप से एक युवा जनांकिकीय दृश्यता थी, जिसमें सांसदों औसत आयु 46.5 वर्ष थी, जिसने इसे इतिहास में दूसरी सबसे युवा संसद बना दिया। उल्लेखनीय रूप से, इसने 40 वर्ष से कम आयु के 82 सदस्यों और 70 वर्ष से अधिक आयु के किसी भी सदस्य के बिना, युवा प्रतिनिधित्व के एक उच्चतम अनुपात का रिकॉर्ड बनाया।
1952 से, लोक सभा के सांसदों की औसत आयु में, 1998 में 46.4 वर्ष की एक छोटी-सी गिरावट के साथ, निरंतर वृद्धि हो रही है। 1999 के चुनावों में अधिकतम औसत आयु 55.5 वर्ष देखी गई। परंतु 2024 के चुनावों के बाद अठारहवीं लोक सभा में 56 वर्ष की औसत आयु, जो अब तक सबसे अधिक है, के साथ एक नया रिकार्ड बना है।
वर्तमान लोक सभा में 35 वर्ष से कम आयु के केवल 25 सांसद हैं, जिनमें से केवल 7, 30 वर्ष से कम आयु के हैं। यह इतिहास में युवा सांसदों का न्यूनतम प्रतिनिधित्व है, जो केवल 2019 की लोक सभा में 35 वर्ष से कम आयु के 21 तथा 2009 की लोक सभा में 22 सांसदों से अधिक है। यह प्रवृत्ति पहली लोक सभा से लेकर अब तक युवा सांसदों की संख्या में लगातार एक गिरावट को प्रदर्शित करती है।
मौजूदा लोक सभा में वृद्ध सांसदों, 51 वर्ष या उससे अधिक आयु के 380 सदस्यों के साथ, की पर्याप्त संख्या है। इसमें 71 वर्ष से अधिक आयु के 53 सांसद, 61-70 वर्ष के 161 सांसद, और 30.6 प्रतिशत के साथ सबसे बड़ा समूह जो 51-60 वर्ष के आयु समूह के सांसदों को मिलाकर बना है, शामिल हैं। उल्लेखनीय रूप से, डीएमके के टी. आर. बालू (82 वर्ष), मौजूदा सांसदों में सबसे बड़े (या सबसे अधिक आयु) के हैं, जो तमिलनाडु के श्रीपेरूम्बुदूर निर्वाचन क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं।
वर्तमान लोक सभा में केवल तीन सदस्यों की आयु 25 वर्ष से कम है। प्रिया सरोज तथा पुष्पेंद्र सरोज, दोनों उत्तर प्रदेश से समाजवादी पार्टी का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं, और बिहार की शांभवी चौधरी, जो लोक जनशक्ति पार्टी (राम विलास पासवान) का प्रतिनिधित्व कर रही हैं, सदन में सबसे कम आयु वर्ग के समूह का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। इन तीनों सांसदों ने यथासंभव सबसे कम आयु में संसद में प्रवेश कर एक असाधारण उपलब्धि हासिल की है, जिससे विधायी निकाय में एक नया स्वरूप प्रदान किया है। 2011 की जनगणना के अनुसार, सांसदों की तुलना में भारतीयों की औसत आयु लगभग 27.8 वर्ष है।
सांसदों की न्यूनतम आयु को कम करने की आवश्यकता
जनसांख्यिकीय लाभांश एवं युवा प्रतिनिधित्व: भारत एक युवा देश है, जिसकी 65 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या 35 वर्ष से कम आयु की है। यह जनसांख्यिकी समृद्धि और विकास के लिए एक अवसर प्रस्तुत करती है, जिसे प्रायः ‘जनसांख्यिकीय लाभांश’ के रूप में संदर्भित किया जाता है। हालांकि, इस युवा आबादी के बावजूद, संसद में युवाओं का प्रतिनिधित्व सीमित बना हुआ है। देश की औसत आयु 28.2 वर्ष होने के बाद भी केवल 12 प्रतिशत सांसदों की आयु 25 से 40 वर्ष के बीच है। सांसदों की न्यूनतम आयु को कम करने से शासन और नीति-निर्माण में अधिक से अधिक युवाओं की भागीदारी का मार्ग प्रशस्त हो सकता है, जिससे उनके दृष्टिकोणों, महत्वाकांक्षाओं, और विचारों का यथोचित प्रतिनिधित्व सुनिश्चित होगा।
राजनीतिक भागीदारी और सहभागिता को प्रोत्साहित करना: सांसदों के लिए आयु सीमा को घटाने से युवाओं में व्यापक राजनीतिक सहभागिता को प्रोत्साहन दिया जा सकता है। यह राजनीति में सक्रिय भाग लेने हेतु युवाओं के लिए एक प्रेरणा के रूप में कार्य कर सकता है, जो संभवतः मतदाताओं की संख्या, युवा सक्रियतावाद, और प्रारंभिक या जमीनी स्तर पर सहभागिता को बढ़ावा देने के रूप में परिणत हो सकता है। एक युवा संसद यह प्रदर्शित करते हुए युवाओं के लिए एक उम्मीद की किरण की भांति कार्य कर सकती है कि देश के भविष्य का निर्माण करने में उनके विचारों तथा कार्यों का भी योगदान है।
शासन में नवीन विचारों और नवाचार का समावेश करना: समस्याओं का समाधान करने हेतु युवा नए दृष्टिकोण, नवीन विचार, और एक सक्रिय अथवा प्रभावशाली उपागम प्रस्तुत करते हैं। तीव्रता से बदलते विश्व में, प्रौद्योगिकीय उन्नति तथा विकसित होते सामाजिक मानकों के साथ संसद में युवा सदस्यों की उपस्थिति, ऐसी नीतियों का निर्माण करने में सहायता कर सकती है जो समकालीन मुद्दों से अधिक सुसंगत हों। इसमें जलवायु परिवर्तन को संबोधित करने सहित, डिजिटल शासन, नवाचार पारितंत्रों, और शिक्षा सुधारों को एक अधिक स्पष्ट तथा प्रगतिशील रीति से शामिल किया जा सकता है।
अन्य लोकतंत्रों की तुलना में भारतीय परिप्रेक्ष्य: अनेक देशों द्वारा अपने सांसदों के लिए निर्धारित न्यूनतम आयु को सफलतापूर्वक कम कर दिया गया है, जैसे कि यूनाइटेड किंगडम (हाउस ऑफ कॉमन्स और हाउस ऑफ लॉर्ड्स दोनों के लिए 18 वर्ष), कनाडा (हाउस ऑफ कॉमन्स के लिए 18 वर्ष), और जर्मनी (बुंडेस्टैग के लिए 18 वर्ष)। इन देशों में युवा सहभागिता, प्रगतिशील नीति-निर्माण, और प्रभावशाली नेतृत्व के संदर्भ में सकारात्मक परिणाम देखे गए हैं। भारत एक अधिक समावेशी एवं जीवंत लोकतांत्रिक प्रक्रिया का पोषण करने हेतु इन अनुभवों से सबक ले सकता है।
सांसदों की न्यूनतम आयु कम करने के संभावित लाभ
पीढ़ीगत अंतराल को कम करना: सांसदों की न्यूनतम आयु कम करने से विधिनिर्माताओं तथा साधारण जन समुदाय के बीच के पीढ़ीगत अंतराल (विभिन्न पीढ़ियों अर्थात युवा और पुरानी या प्रौढ़/वृद्ध पीढ़ी या पीढ़ियों के दृष्टिकोण, मूल्यों, विश्वासों और व्यवहारों में अंतर) को कम या दूर करने में सहायता मिल सकती है। यह रोजगार, शिक्षा, मानसिक स्वास्थ्य, और सामाजिक न्याय जैसे युवाओं से संबंधित मुद्दों पर बेहतर संवाद एवं समझ विकसित करने में सहायक होगा। युवा प्रतिनिधि युवा जनसंख्या की जरूरतों तथा महत्वाकांक्षाओं को समझने और उन्हें प्राथमिकता देने में अधिक समर्थ होते हैं।
अधिकारहीन युवाओं को सशक्त करना: सांसदों के लिए निर्दिष्ट आयु को कम करने से अधिकारहीन तथा अपर्याप्त प्रतिनिधित्व करने वाले युवा वर्ग के लिए राजनीति की मुख्यधारा में प्रवेश करने हेतु अवसर सृजित किए जा सकते हैं। विभिन्न पृष्ठभूमियों से संबंध रखने वाले युवा, जिनमें महिलाएं, अल्पसंख्यक, और आर्थिक रूप से पिछड़े या वंचित वर्ग/समूह शामिल हैं, विधायी व्यवस्था में नए संदर्श/नई संभावनाएं ला सकते हैं, और अधिक समावेशी नीतियां बनाने में योगदान दे सकते हैं।
दीर्घावधिक नीतियों के संबंध में दूरदर्शिता: युवा राजनीतिज्ञों द्वारा दीर्घकालीन समस्याओं तथा सतत विकास पर ध्यान दिए जाने की अधिक संभावना होती है, जो उन्हें उन नीतियों के परिणामों से अनुभव अर्जित करने का विकल्प देते हैं, जो उनके द्वारा बनाई गई हैं। जलवायु परिवर्तन, डिजिटल परिवर्तन, संधारणीय शहरीकरण, और नवीकरणीय ऊर्जा जैसे मुद्दे, शासन में एक भविष्योन्मुखी उपागम को प्रोत्साहन देने हेतु, अधिक ध्यान आकर्षित कर सकते हैं।
नागरिक उत्तरदायित्व एवं राजनीतिक जागरूकता को बढ़ावा देना: सांसदों के लिए निर्धारित न्यूनतम आयु को घटाना शासन में युवा भागीदारी के प्रति प्रतिबद्धता का संकेत होगा। यह युवा नागरिकों के बीच नागरिक उत्तरदायित्व तथा राजनीतिक जागरूकता की भावना विकसित कर सकता है, जिससे उन्हें लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं, सामुदायिक विकास, और राष्ट्र-निर्माण में सक्रिय रूप से भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया जा सके।
सांसदों की न्यूनतम आयु कम करने से संबद्ध चुनौतियां
अनुभव और परिपक्वता के संबंध में चिताएं: सांसदों की न्यूनतम आयु को कम करने के विरुद्ध दिए जाने वाले प्रमुख तर्कों में से एक कथित तौर पर युवाओं में अनुभव और परिपक्वता की कमी होना है। आलोचक तर्क देते हैं कि शासन और विधान के लिए जटिल सामाजिक-आर्थिक तथा राजनीतिक मुद्दों की गहन समझ होना आवश्यक है, जो प्रायः उम्र और अनुभव से आती है। राजनीतिक समाज में एक आशंका या भय है कि इन जटिलताओं का प्रभावी रूप से समाधान करने में युवा प्रतिनिधियों में आवश्यक बुद्धिमत्ता और व्यावहारिक ज्ञान का अभाव होगा।
लोकवाद एवं अल्पावधिक होने का जोखिम: कुछ विशेषज्ञ इस बात का विरोध करते हैं कि युवा राजनीतिज्ञ, स्थायी सुविचारित नीतियों के स्थान पर त्वरित परिणाम प्राप्त करने की अपनी इच्छा से प्रेरित होकर, लोकप्रियता तथा कम समय में निर्णय लेने के प्रति अतिसंवेदनशील हो सकते हैं। एक चिंता यह भी है कि युवा सांसद, अपने सीमित राजनीतिक अनुभव के कारण, बाहरी प्रभावों /दबावों के सामने अत्यधिक कमजोर पड़ सकते हैं।
प्रतीकवाद की संभावना: आवश्यक आयु को घटाने से प्रतीकवाद को बढ़ावा मिल सकता है, यदि कोई वास्तविक अधिकार प्रदान किए बिना समावेशिता का दिखावा करने के लिए युवा राजनीतिज्ञों को शामिल किया जाता है। इसका परिणाम अंगभीर प्रतिनिधित्व हो सकता है, जहां युवा राजनेताओं को वास्तविक अधिकार या नेतृत्व की भूमिका नहीं दी जाती बल्कि इसके बजाय उनके बड़े तथा अधिक अनुभवी सहकर्मियों द्वारा उन्हें प्रभावहीन कर दिया जाता है।
संस्थागत विरोध तथा यथास्थिति के प्रति पूर्वाग्रह: पहले से स्थापित राजनीतिक व्यवस्था न्यूनतम आयु सीमा में बदलाव का विरोध कर सकती है, क्योंकि वह इसे यथास्थिति के लिए एक खतरे के रूप में देखती है। संस्थागत विरोध से अर्थपूर्ण सुधारों में बाधा उत्पन्न हो सकती है, विशेषकर तब जब कि अधिकारों/शक्तियों को अपने से कम आयु के तथा संभवतः अधिक प्रभावशाली राजनीतिज्ञों से साझा करने की स्थिति में।
विधिक एवं सांविधानिक विचार: सांसदों के लिए विनिर्दिष्ट आयु को कम करने के लिए संविधान में संशोधन करने की आवश्यकता होगी। लोक सभा तथा राज्य सभा के सदस्यों के लिए निर्धारित आयु भारत के संविधान, क्रमशः अनुच्छेद 84 और अनुच्छेद 84ख, में निहित है, और किसी भी संशोधन को पारित करने के लिए संसद के दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत की आवश्यकता होगी। इसके अलावा, ऐसे किसी प्रस्ताव को व्यापक रूप से राजनीतिक मतैक्य की आवश्यकता होगी, जिसका संभावित प्रभाव देश के राजनीतिक परिदृश्य पर पड़ना निश्चित है।
हालिया घटनाक्रम
अगस्त 2023 में, कार्मिक, लोक शिकायत, विधि एवं न्याय पर बनी संसदीय समिति ने अपनी 132वीं रिपोर्ट में, कनाडा, यूके, और ऑस्ट्रेलिया जैसे वैश्विक उदाहरणों का हवाला देते हुए, चुनाव लड़ने के लिए न्यूनतम आयु 25 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष करने की अनुशंसा की। यह प्रस्ताव राजनीति में युवा प्रतिनिधित्व में वृद्धि करने, उनके नए विचारों तथा विविधता का लाभ उठाने के उद्देश्य से किया गया था। इस सिफारिश का समर्थन युवाओं में बढ़ रही राजनीतिक सहभागिता तथा समझ, जो उन्हें योग्य और जिम्मेदार राजनीतिक भागीदार बनाती हैं, द्वारा किया गया था।
भारत निर्वाचन आयोग (ECI) निर्वाचन उम्मीदवारों के लिए न्यूनतम आयु में परिवर्तन करने के प्रति सतर्क है, जिसका कहना है कि संवैधानिक प्रावधानों को केवल किन्हीं ठोस कारणों से संशोधित किया जाना चाहिए। इससे पहले निर्वाचन आयोग ने मतदान करने और चुनाव लड़ने की न्यूनतम आयु को एक समान करने पर विचार किया था लेकिन यह विनिश्चित किया कि 18 वर्ष की आयु के लोगों में आवश्यक अनुभव और राजनीतिक उत्तरदायित्वों संबंध में परिपक्वता की कमी हो सकती है। अतः, निर्वाचन आयोग ने निर्धारित वर्तमान न्यूनतम आयु को उपयुक्त माना और इसे कम करने का समर्थन नहीं किया।
समिति ने यह सिफारिश की कि निर्वाचन आयोग और सरकार को युवाओं को राजनीति में भाग लेने के लिए आवश्यक ज्ञान और कौशल में समर्थ बनाने हेतु व्यापक नागरिक शिक्षा कार्यक्रमों को लागू करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। इसने सफल अंतरराष्ट्रीय मॉडल, जैसे कि फिनलैंड का सिटीजनशिप एजुकेशन प्रोग्राम, से प्रेरणा लेने, और उन्हें भारत की जरूरतों के अनुकूल बनाकर अपनाने का सुझाव दिया।
भारतीय युवा, अपने अधिकारों और दायित्वों के प्रति जागरूक हैं, तथा ग्रेटा थनबर्ग के “Fridays and Future” जैसे वैश्विक अभियानों से प्रेरित होकर, राजनीतिक चर्चाओं में भाग ले रहे और संधारणीय विकास को बढ़ावा देने वाले अपने अधिकारों को पहचान रहे हैं। हालांकि, अपने अधिकारों का प्रयोग करने में उन्हें आयु-संबंधी बाधाओं का सामना करना पड़ रहा है, जो उनकी क्षमताओं/संभावनाओं को सीमित कर रहा है। 2018 में यूएन द्वारा जारी एक रिपोर्ट में यह उद्घाटित किया गया कि राजनीति में युवाओं का अपर्याप्त, 30 वर्ष से कम आयु वाले दो प्रतिशत से भी कम सांसदों के कारण, प्रतिनिधित्व है, और निर्णय लेने में युवा प्रतिनिधित्व की वास्तविक संख्या पर प्रश्न करते हुए, मतदान की आयु और उम्मीदवारी की मांग में विद्यमान असमानता पर टिप्पणी की।
भारत में विश्वविद्यालयी और छात्र राजनीति 1979 से महत्वपूर्ण रूप से विकसित हुई है। 2012 में लिंगदोह समिति, जिसने छात्र संघ के चुनावों के लिए अधिकतम आयु सीमा निर्धारित की थी, की सिफारिशों को दी गई स्वीकृति युवाओं के विचारों को सामने लाने में सहायक बनी। परिणामस्वरूप, युवा विचारों को सशक्त किया गया, और बड़े विश्वविद्यालयों में छात्र संघ के नेताओं की औसत आयु को, 2019 से, 22.5 वर्ष तक घटाया गया।
आगे की राह
युवाओं को राजनीतिक व्यवस्था में भागीदारी की अनुमति देकर, भारत की संसदीय प्रणाली में नए विचारों/दृष्टिकोणों को शामिल करने का यही समय है। हमारे देश में 21 वर्षीय युवा पहले से ही विभिन्न क्षेत्रों, जैसे कि सिविल सेवाओं, स्थानीय शासन, उद्यमिता, और सैन्य सेवाओं, में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन कर रहे हैं, अतः उन्हें वैधानिक उम्मीदवारों के रूप में देश की निर्णय निर्माण प्रक्रिया में भाग लेने हेतु सक्षम बनाना उचित है। यह देश के हित में उनके मौजूदा मताधिकारों तथा उनकी ऊर्जा और विचारों की प्रभावन- क्षमता को समन्वित करेगा।
यद्यपि अनुभव, परिपक्वता, और लोकलुभावनवाद के संभावित जोखिमों के संबंध में चिताएं सही हैं, तथापि युवाओं के अधिक प्रतिनिधित्व, नवोन्मेष, और समावेशिता के लाभों की उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए। एक संतुलित तथा क्रमिक उपागम, दृढ़ राजनीतिक शिक्षा और क्षमता निर्माण के समन्वित प्रयासों के साथ, अपना जनसांख्यिकीय लाभांश प्राप्त करने तथा एक अधिक गतिशील एवं भविष्य के लिए कुशल लोकतंत्र का निर्माण करने में भारत की सहायता करेगा।
जैसा कि भारत निरंतर एक वैश्विक शक्ति के रूप में विकसित हो रहा है, यह सुनिश्चित करना अनिवार्य हो जाता है कि इसके राजनीतिक संस्थान इसके नागरिकों की महत्वाकांक्षाओं और विविधताओं को दर्शाएं। सांसदों के लिए आयु सीमा को कम करना एक अधिक समावेशी और सहभागी लोकतंत्र प्राप्त करने की दिशा में एक कदम हो सकता है, जहां देश के भाग्य को आकार देने में युवा विचारों की एक सार्थक भूमिका होगी।
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