राज्यपाल के पद से संबंधित विभिन्न पहलुओं ने समय-समय पर विवादों को जन्म दिया है। राज्यपाल की नियुक्ति की प्रक्रिया, राज्यपाल की शक्तियां और विवेकाधिकार कुछ ऐसे मुद्दे हैं जिन पर वर्षों से बहस होती रही है। राज्यपाल की भूमिका को लेकर विवाद तब और अधिक मुखर हो जाते हैं जब केंद्र और राज्यों में भिन्न-भिन्न राजनीतिक दल सत्ता में होते हैं, जैसा कि वर्तमान में प्रायः देखने को मिलता है।
हाल के दिनों में, तमिलनाडु, केरल, पंजाब और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त राज्यपालों और निर्वाचित राज्य सरकारों के बीच तीखे टकराव देखने को मिल रहे हैं। ऐसा ही एक मुद्दा तमिलनाडु राज्य विधान-मंडल द्वारा पारित विधेयकों, जिन्हें स्वीकृति के लिए राज्यपाल के पास भेजा गया था, पर राज्यपाल द्वारा निर्णय लेने में होने वाली देरी से संबंधित है। उच्चतम न्यायालय ने डीएमके के नेतृत्व वाली तमिलनाडु सरकार द्वारा संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत दायर एक रिट याचिका पर सुनवाई करते हुए इस मुद्दे पर अपना निर्णय दिया।
राज्यपाल के विरुद्ध तमिलनाडु का मामला
तमिलनाडु राज्य विधान-मंडल द्वारा जनवरी 2020 से अप्रैल 2023 के बीच 12 विधेयक पारित किए गए थे। परंतु राज्यपाल आर.एन. रवि, जिन्हें 2021 में राज्यपाल के पद पर नियुक्त किया गया था, ने इनमें से किसी भी विधेयक पर आवश्यक कार्रवाई नहीं की। अतः अक्टूबर 2023 के अंत में, तमिलनाडु की राज्य सरकार ने राज्यपाल आर.एन. रवि की इस दीर्घावधिक निष्क्रियता को चुनौती देते हुए उच्चतम न्यायालय में एक रिट याचिका दायर की।
न्यायालय ने नवंबर 2023 में सभी संबंधित पक्षों को नोटिस जारी किया। इस बीच, राज्यपाल ने 10 विधेयकों को अपनी स्वीकृति देने से इनकार करने का कार्य किया। राज्यपाल ने इन विधेयकों पर पुनर्विचार हेतु किसी भी संदेश या सिफारिशों के साथ उन्हें राज्य विधान-मंडल को वापस नहीं भेजा। दूसरे शब्दों में, उन्होंने प्रभावी रूप से उन विधेयकों के लिए निषेधाधिकार (वीटो) का प्रयोग किया। जब राज्य विधान-मंडल ने उन विधेयकों को किसी महत्वपूर्ण संशोधन के बिना पारित कर पुनः राज्यपाल को भेजा, तो राज्यपाल ने उन्हें स्वीकृति नहीं दी, बल्कि अपने विवेकाधिकार का प्रयोग करते हुए उन्होंने उन विधेयकों को राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित रख लिया; उनका तर्क था कि यदि ये विधेयक कानून बन जाते हैं, तो वे संघ के अधिकार क्षेत्र में आने वाले विषयों में हस्तक्षेप कर सकते हैं क्योंकि उनमें से कई विश्वविद्यालयों के प्रशासन से संबंधित थे और केंद्रीय नीतियों के क्षेत्रों को अतिव्याप्त (ओवरलैप) कर सकते थे।
विधेयकों में मद्रास विश्वविद्यालय को छोड़कर, शेष विश्वविद्यालयों में कुलपति की नियुक्ति हेतु राज्य सरकार को, राज्यपाल के बजाय, सशक्त बनाने; कुलपति की नियुक्ति के लिए चयन पैनल में सरकार द्वारा नामित व्यक्ति को शामिल करने; विश्वविद्यालय के कामकाज का निरीक्षण और जांच करने का अधिकार कुलाधिपति के बजाय सरकार को देने; सभी विश्वविद्यालयों (तीन सरकारी विश्वविद्यालयों को छोड़कर) के सिंडिकेट (प्रबंधन समिति के सदस्यों या प्रतिनिधियों की समिति) में वित्त सचिव को शामिल करने; और एक सरकारी आयुर्वेद विश्वविद्यालय की स्थापना करने का प्रस्ताव शामिल था।
इसके अलावा कुछ अन्य फाइलें और दस्तावेज भी थे जिन्हें राज्यपाल ने कोई निर्णय लिए बिना रोक रखा था, याचिका के माध्यम से उन्हें भी न्यायालय के संज्ञान में लाया गया।
तमिलनाडु सरकार की याचिका में राज्यपाल पर अपने संवैधानिक कर्तव्य निभाने में “निष्क्रियता, चूक, देरी और विफलता” का आरोप लगाया गया।
याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि भारतीय संविधान में 'पॉकेट वीटो', (Pocket Veto) जिसमें राज्यपाल किसी विधेयक पर अनिश्चित काल तक अपनी स्वीकृति रोककर रखते हैं, का कोई अस्तित्व नहीं है। याचिकाकर्ताओं ने कहा कि यदि राज्यपाल अनिश्चित काल तक विधेयकों पर अपना निर्णय रोककर रखते हैं, तो “शासन पंगु हो जाएगा।”
मुख्य मुद्दे: इस मामले में उठाए गए मुख्य मुद्दे, जिन पर न्यायालय ने विचार किया, निम्नलिखित थे: (i) संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल को प्राप्त शक्तियों में उनके लिए उपलब्ध कार्यवाहियों के विकल्प क्या हैं, और क्या अनुच्छेद 200 में किया गया उपबंध राज्यपाल को किसी विधेयक पर 'पूर्ण वीटो' या 'पॉकेट वीटो' का प्रयोग करने की अनुमति देता है; (ii) क्या राज्यपाल किसी विधेयक को, जिसे अनुच्छेद 200 के प्रथम परंतुक के अनुसार पुनर्विचार के बाद उसकी स्वीकृति हेतु प्रस्तुत किया गया हो, राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित रख सकता है; (iii) क्या अनुच्छेद 200 के उपबंधों के अधीन राज्यपाल के लिए किसी निश्चित समय-सीमा में कार्य करना आवश्यक है; (iv) क्या अनुच्छेद 200 के अधीन राज्यपाल केवल राज्य मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह के अनुसार कार्य कर सकता है या उसे विवेकाधिकार का प्रयोग करने की अनुमति है; (v) जब किसी विधेयक को राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित रखा गया हो, तो अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति से किस प्रकार कार्य करना अपेक्षित है; और (vi) क्या अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल और अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति द्वारा किए गए कार्यों की न्यायिक समीक्षा की जा सकती है।
संविधान के भाग 6 के अध्याय 3 में अनुच्छेद 200, विधायी प्रक्रिया शीर्षक के अंतर्गत, ‘विधेयकों पर अनुमति’ के संबंध में है। यह कहता है:
“जब कोई विधेयक राज्य की विधान सभा द्वारा या विधान परिषद वाले राज्य में विधान-मंडल के दोनों सदनों द्वारा पारित कर दिया गया है, तब वह राज्यपाल के समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा और राज्यपाल घोषित करेगा कि वह विधेयक पर अनुमति देता है या अनुमति रोक लेता है अथवा वह विधेयक को राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित रखता है:
परंतु राज्यपाल अनुमति के लिए अपने समक्ष विधेयक प्रस्तुत किए जाने के पश्चात यथाशीघ्र उस विधेयक को, यदि वह धन विधेयक नहीं है तो, सदन या सदनों को इस संदेश के साथ लौटा सकेगा कि सदन या दोनों सदन विधेयक पर या उसके किन्हीं विनिर्दिष्ट उपबंधों पर पुनर्विचार करें और विशिष्टतया किन्हीं ऐसे संशोधनों के पुर:स्थापन की वांछनीयता पर विचार करें, जिनकी उसने अपने संदेश में सिफारिश की है और जब विधेयक इस प्रकार लौटा दिया जाता है, तब सदन या दोनों सदन विधेयक पर तदनुसार पुनर्विचार करेंगे और यदि विधेयक सदन या सदनों द्वारा संशोधन सहित या उसके बिना फिर से पारित कर दिया जाता है और राज्यपाल के समक्ष अनुमति के लिए प्रस्तुत किया जाता है तो राज्यपाल उस पर अनुमति नहीं रोकेगा:
परंतु यह और कि जिस विधेयक से, उसके विधि बन जाने पर, राज्यपाल की राय में उच्च न्यायालय की शक्तियों का ऐसा अल्पीकरण होगा कि वह स्थान, जिसकी पूर्ति के लिए वह न्यायालय इस संविधान द्वारा परिकल्पित है, संकटापन्न हो जाएगा, उस विधेयक पर राज्यपाल अनुमति नहीं देगा, किंतु उसे राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित रखेगा।“
उच्चतम न्यायालय का निर्णय
8 अप्रैल, 2025 को उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर. महादेवन की खंडपीठ ने सर्वसम्मति से यह निर्णय दिया कि तमिलनाडु के राज्यपाल आर.एन. रवि द्वारा राज्य विधान सभा के 10 विधेयकों की स्वीकृति न देना “अवैध” एवं “त्रुटिपूर्ण” था।
इस प्रक्रिया में, भारतीय संविधान के दो अनुच्छेदों, अर्थात अनुच्छेद 200 और अनुच्छेद 163, की समीक्षा की गई। साथ ही, इस संदर्भ में अनुच्छेद 142, जो उच्चतम न्यायालय को विवेकाधीन शक्तियां प्रदान करता है, का भी प्रयोग किया गया।
न्यायाधीशों ने राज्यपाल और राष्ट्रपति के लिए समय-सीमा भी निर्धारित की, जिसके भीतर उन्हें राज्य विधेयकों पर अपने निर्णयों की जानकारी देनी होगी। न्यायालय ने न्यायिक पुनर्विलोकन के दायरे का भी विस्तार किया, जिसके तहत अब यदि राज्यपाल या राष्ट्रपति द्वारा राज्य विधेयकों पर निर्णय लेने में निर्धारित समय-सीमा का पालन नहीं किया जाता है, तो राज्य सरकारें न्यायालय से परमादेश (writ of mandamus) जारी करने का अनुरोध कर सकती हैं।
अनुच्छेद 200 में स्पष्ट किया गया है: राज्य विधान-मंडल द्वारा विधेयक पारित किए जाने के बाद, विधेयक को राज्यपाल के पास विचारार्थ भेजा जाता है। राज्यपाल की स्वीकृति मिलने के साथ ही वह विधेयक कानून बन जाता है।
राज्यपाल के लिए कार्यवाही के विकल्प: न्यायालय ने स्पष्ट किया कि अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल के पास विधेयक प्राप्त होने पर तीन विकल्प या कार्यवाही के तरीके होते हैं: (i) स्वीकृति देना, या (ii) स्वीकृति रोकना, या (iii) विधेयक को राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित रखना। ‘या’ शब्द का प्रयोग यह स्पष्ट करता है कि ये विकल्प पारस्परिक रूप से अनन्य (mutually exclusive) हैं। कुछ परंतुक भी हैं, जिनका पालन करना आवश्यक होता है।
न्यायालय के अनुसार, यद्यपि प्रथम विकल्प, अर्थात विधेयक को स्वीकृति देने में कोई समस्या नहीं है, परंतु जब राज्यपाल दूसरा विकल्प चुनता है और विधेयक को स्वीकृति न देने का निर्णय लेता है (यह केवल गैर-धन विधेयक के मामले में लागू होता है), तो प्रथम परंतुक लागू हो जाता है। यदि राज्यपाल किसी विधेयक पर अपनी सहमति देने के लिए तैयार नहीं है, तो उसे अपनी सिफारिशों सहित एक संदेश के साथ विधेयक को पुनर्विचार के लिए विधान-मंडल को वापस भेज देना चाहिए। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि अनुच्छेद 200 के प्रथम परंतुक को राज्यपाल द्वारा सहमति को रोकने के विकल्प के साथ पढ़ा जाना चाहिए: “यह कार्रवाई का एक स्वतंत्र तरीका नहीं है, बल्कि उन मामलों में राज्यपाल द्वारा अनिवार्य रूप से पहल की जानी चाहिए, जहां सहमति न देने का विकल्प अपनाया जाना हो।” यह राज्य विधान-मंडल पर निर्भर करता है कि वह राज्यपाल की सिफारिशों को स्वीकार करता है या नहीं।
यदि विधान-मंडल संशोधन के साथ या संशोधन के बिना विधेयक पारित कर देता है और उसे फिर से राज्यपाल के समक्ष प्रस्तुत करता है, तो राज्यपाल उस पर “अनुमति नहीं रोकेगा”। दूसरे शब्दों में, राज्यपाल के पास अब विधेयक को स्वीकृति देने के अलावा कोई विकल्प नहीं रह जाता।
[इस मामले में चिंता का मुख्य विषय पहला परंतुक था। दूसरा परंतुक यह है कि यदि राज्यपाल को लगता है कि कोई विधेयक उच्च न्यायालयों की शक्तियों का हनन करता है, तो वह उसे राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित रख सकता है। इसके पश्चात राष्ट्रपति अनुच्छेद 201 के तहत विधेयक पर अपनी स्वीकृति देगा या उसे अस्वीकृत कर देगा। हालांकि, दूसरा उपबंध इस मामले के संदर्भ में अधिक प्रासंगिक नहीं था।]
कोई पॉकेट वीटो या पूर्ण वीटो नहीं: अनुच्छेद 200 में राज्यपाल के लिए निर्णय लेने हेतु कोई समय-सीमा निर्धारित नहीं की गई है। परिणामस्वरूप, जिसे 'पॉकेट वीटो' (राज्यपाल द्वारा किसी विधेयक पर अनिश्चित काल तक कोई निर्णय न लेना) के रूप में जाना जाता है, व्यवहार में आने लगा।
न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि अनुच्छेद 200 में प्रयुक्त शब्द ‘करेगा’ (shall—अनिवार्य रूप से) यह दर्शाता है कि राज्यपाल के विकल्प संवैधानिक रूप से सीमित हैं जो इस अनुच्छेद में विनिर्दिष्ट किए गए हैं, और संविधान में निष्क्रियता का कोई विकल्प नहीं है। न्यायालय ने कहा कि पहला परंतुक, अस्वीकृति के विकल्प से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। राज्यपाल अनुमति को यूं ही नहीं रोक सकता; और एक बार जब वह अनुमति रोकने का विकल्प चुन लेता है, तो उसके लिए विधान-मंडल को अपनी सिफारिशों सहित एक संदेश के साथ विधेयक वापस करना आवश्यक है। दूसरे शब्दों में, अनुच्छेद 200 के तहत ‘पूर्ण वीटो’ की अनुमति नहीं है।
इसके अलावा, "यथासंभव शीघ्र" (as soon as possible) पद का निहितार्थ अनिश्चित काल तक प्रतीक्षा करना नहीं है; वास्तव में, यह राज्यपाल के लिए, यदि वह विधेयक पर सहमति न देने का निर्णय लेता है, तो शीघ्रता से कार्य करने की एक बाध्यता और प्रेरणा है। इसका उद्देश्य राज्यपाल को किसी विधेयक पर निर्णय को अनिश्चित काल तक टालने और इस प्रकार 'पॉकेट वीटो' का प्रयोग करने का अवसर देना नहीं है।
पूर्ववर्ती मामलों के आधार पर न्यायाधीशों द्वारा स्पष्ट किया गया कि राज्यपाल के पास न तो पूर्ण वीटो का अधिकार है और न ही पॉकेट वीटो का। पंजाब राज्य बनाम पंजाब के राज्यपाल के प्रधान सचिव मामले (2023) में उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया था कि राज्यपाल द्वारा सहमति न देना केवल तभी वैध है जब वह विधेयक को पुनर्विचार हेतु विधान-मंडल को वापस भेजता है। भारत संघ बनाम वल्लुरी बसवैय्या चौधरी (1974) मामले में संविधान पीठ ने यह टिप्पणी की थी कि कोई विधेयक “तब तक निरस्त माना जाता है जब तक कि प्रथम परंतुक में निर्दिष्ट प्रक्रिया का पालन नहीं किया जाता।” न्यायमूर्ति पारदीवाला के अनुसार, इससे यह तथ्य पुष्ट होता है कि सहमति रोकना और प्रथम परंतुक में दी गई प्रक्रिया सहसंबद्ध हैं। इसे अग्रलिखित रूप में समझा जाना चाहिए: यद्यपि राज्य विधान-मंडल लौटाए गए विधेयक पर पुनर्विचार करने में देर कर सकता है, तथापि विधेयक केवल तभी निरस्त होता है जब विधान-मंडल उस पर कोई कार्रवाई न करने का निर्णय लेता है। पुनर्विचार करने का विशेषाधिकार केवल राज्य सरकार के पास है, न कि राज्यपाल के पास। यदि राज्यपाल अपनी सहमति रोके रखता है, तो उसे विधेयक को “यथासंभव शीघ्र” वापस करना होगा; उसके पास सहमति न देने और विधेयक को वापस किए बिना उसे लंबित रखने का विवेकाधिकार नहीं है।
पुनः प्रस्तुत किए गए विधेयक को राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित नहीं किया जाएगा: न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि यदि राज्यपाल किसी विधेयक पर सहमति नहीं देता और उसे विधान-मंडल को लौटा देता है (जो करना उनके लिए अनिवार्य है), और विधान-मंडल उस पर पुनर्विचार कर उसे फिर से राज्यपाल को भेज देता है, तो राज्यपाल उस विधेयक को राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित नहीं रख सकता। चूंकि राज्यपाल ने अनुच्छेद 200 के तहत सहमति न देकर पहले ही एक विकल्प का प्रयोग कर लिया है, इसलिए जब विधेयक को पुनः प्रस्तुत किया जाता है, तो राज्यपाल को उस पर अनिवार्य रूप से सहमति देनी पड़ती है।
न्यायालय के अनुसार, यदि पुनः प्रस्तुत किए गए विधेयक में ऐसे संशोधन शामिल हैं जो राज्यपाल द्वारा विधेयक लौटाते समय की गई सिफारिशों का हिस्सा नहीं थे, तो राज्यपाल उस पुनर्विचारित विधेयक को राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित रख सकता है, क्योंकि ऐसी स्थिति में वह एक नया विधेयक माना जाएगा। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि अनुच्छेद 200 के “पहले परंतुक को इस रूप में नहीं पढ़ा जा सकता कि वह राज्य विधान-मंडल को यह असीमित अधिकार देता है कि वह पुनः प्रस्तुत किए गए विधेयक में ऐसे परिवर्तन कर दे जो उसकी मूल प्रकृति को ही बदल दे।” किंतु यदि पुनः प्रस्तुत विधेयक में कोई परिवर्तन नहीं है या केवल राज्यपाल की सिफारिशों पर आधारित संशोधन ही किए गए हैं, तो राज्यपाल उसे राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित नहीं रख सकता। अनुच्छेद 200 में प्रयुक्त वाक्यांश 'अनुमति देने से इनकार नहीं करेगा' स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि ऐसे विधेयकों पर राज्यपाल के लिए सहमति देना अनिवार्य है। अतः राज्यपाल रवि का यह आचरण संविधान के प्रावधानों के विरुद्ध था।
अनुच्छेद 200 के तहत कार्रवाई के लिए निर्धारित समय-सीमा: राज्यपाल द्वारा प्रस्तुत विधेयकों पर निर्णय लेने में देरी के मामले की समीक्षा करने के बाद, उच्चतम न्यायालय ने कहा कि इस संबंध में कोई समय-सीमा निर्धारित की जानी चाहिए। न्यायालय ने समय-सीमा के मामले पर सरकारिया आयोग और पुंछी आयोग की सिफारिशों पर भी गौर किया। न्यायालय ने कैशम मेघचंद्र सिंह बनाम मणिपुर विधान सभा के अध्यक्ष और अन्य मामले (2020) के निर्णय का उल्लेख किया, जिसमें विधान सभा के अध्यक्ष के लिए अयोग्य याचिकाओं पर निर्णय लेने हेतु समय-सीमा निर्धारित की गई थी। उच्चतम न्यायालय ने अब अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल द्वारा पालन की जाने वाली समय-सीमा के संबंध में निम्नलिखित निर्देश दिए हैं:
(i) किसी विधेयक पर सहमति रोकने या उसे राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित रखे जाने की स्थिति में, राज्यपाल से अपेक्षा की जाती है कि वह राज्य मंत्रिपरिषद की सलाह और सहायता से, तत्काल ऐसी कार्रवाई करे, जिसकी अधिकतम अवधि एक माह होगी।
(ii) राज्य की मंत्रिपरिषद की सलाह के विरुद्ध विधेयक पर सहमति रोकने की स्थिति में, राज्यपाल को अधिकतम तीन माह की अवधि के भीतर एक संदेश सहित उस विधेयक को वापस करना होगा।
(iii) राज्य की मंत्रिपरिषद की सलाह के विरुद्ध किसी विधेयक को राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित रखने की स्थिति में, राज्यपाल अधिकतम तीन माह की अवधि के भीतर विधेयक को आरक्षित करेगा।
(iv) प्रथम परंतुक के अनुसार पुनर्विचार के पश्चात किसी विधेयक को पुनः प्रस्तुत किए जाने की स्थिति में, राज्यपाल को अधिकतम एक माह की अवधि के भीतर तत्काल उस पर स्वीकृति प्रदान करनी होगी।
न्यायालय ने स्पष्ट किया कि समय-सीमा का निर्धारण संविधान में संशोधन नहीं माना जा सकता, क्योंकि यह अनुच्छेद 200 के तहत निर्धारित प्रक्रिया में कोई परिवर्तन नहीं करता। इसका उद्देश्य समयबद्ध रूप से कार्रवाई करने हेतु एक दिशानिर्देश प्रदान करना है, जो केवल विधायी प्रक्रियाओं में तात्कालिकता की आवश्यकता पर बल देता है। इसके अतिरिक्त, राज्यपाल द्वारा की गई देरी के कारण तत्क्षण कोई निर्धारित या स्वचालित परिणाम उत्पन्न नहीं होंगे; यद्यपि राज्य इस संबंध में न्यायालय का रुख कर सकता है, परंतु राज्यपाल यदि देरी के लिए पर्याप्त स्पष्टीकरण प्रस्तुत करे, तो वह ऐसी चुनौती का सफलतापूर्वक प्रत्युत्तर दे सकता है। न्यायालय यह मूल्यांकन कर सकते हैं कि देरी तर्कसंगत थी या नहीं।
अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियां: सामान्य नियम यह है कि राज्यपाल अनुच्छेद 200 के तहत अपने कार्यों का निर्वहन राज्य मंत्रिपरिषद द्वारा दी गई सहायता और सलाह के अनुसार करता है। अनुच्छेद 163(1) कहता है कि “जिन बातों में इस संविधान द्वारा या इसके अधीन राज्यपाल से यह अपेक्षित है कि वह अपने कृत्यों या उनमें से किसी को अपने विवेकानुसार करे, उन बातों को छोड़कर” राज्यपाल को अपने कृत्यों का प्रयोग करने में सहायता और सलाह देने के लिए एक मंत्रिपरिषद होगी। अनुच्छेद 163(2) के अनुसार, यदि कोई प्रश्न उठता है कि कोई विषय ऐसा है या नहीं जिसके संबंध में इस संविधान द्वारा या इसके अधीन राज्यपाल से यह अपेक्षित है कि वह अपने विवेकानुसार कार्य करे तो राज्यपाल का अपने विवेकानुसार किया गया विनिश्चय अंतिम होगा और राज्यपाल द्वारा की गई किसी बात की विधिमान्यता इस आधार पर प्रश्नगत नहीं की जाएगी कि उसे अपने विवेकानुसार कार्य करना चाहिए था या नहीं। हालांकि, यह विवेकाधिकार संविधान द्वारा निर्धारित नियमों के अधीन है। व्यवहार में, राज्यपाल की ऐसी शक्तियां अत्यंत सीमित हैं जिन्हें वास्तव में विवेकाधीन कहा जा सकता है, जैसे कि अनुच्छेद 356 के तहत राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने के लिए राष्ट्रपति को प्रतिवेदन भेजना, या त्रिशंकु विधान सभा की स्थिति में मुख्यमंत्री का चयन करना। भारत सरकार अधिनियम, 1935 में राज्यपाल को प्रदान की गई विवेकाधीन शक्तियों को भारत के संविधान निर्माताओं ने जान-बूझकर अस्वीकार कर दिया था।
अतः, अनुच्छेद 200 के अंतर्गत राज्यपाल के पास अपने कार्यों का निर्वहन करने हेतु अधिक विवेकाधिकार नहीं होते; अधिकांश मामलों में उसके लिए मंत्रिपरिषद की सलाह का पालन करना अनिवार्य होता है।
सामान्य नियम के अपवाद: सामान्य नियम के अपवादस्वरूप स्थितियां, जिनमें राज्यपाल मंत्रिपरिषद की सलाह के विरुद्ध जाकर अनुच्छेद 200 के अंतर्गत अपने विवेक से कार्य कर सकता है, इस प्रकार हैं:
(i) अनुच्छेद 200 के दूसरे परंतुक के अनुसार, राज्यपाल अपने विवेकानुसार कार्य करता है, अर्थात यदि राज्यपाल की राय में, किसी विधेयक के विधि बन जाने पर उच्च न्यायालय की शक्तियों का ऐसा अल्पीकरण होगा कि वह स्थान, जिसकी पूर्ति के लिए वह न्यायालय संविधान द्वारा परिकल्पित है, संकटापन्न हो जाएगा तो ऐसे विधेयक को राज्यपाल द्वारा मंत्रिपरिषद की सलाह के बिना राष्ट्रपति को संदर्भित करना आवश्यक होता है।
(ii) राज्यपाल के लिए उन विधेयकों के संबंध में विवेकाधिकार का प्रयोग करना आवश्यक होता है, जिनके लिए संविधान में अधिकार या उन्मुक्ति प्राप्त करने या विधि को लागू करने योग्य बनाने के लिए राष्ट्रपति की अनिवार्य सहमति की आवश्यकता होती है, उदाहरण के लिए, अनुच्छेद 31क, 31ग, 254(2), 288(2), और 360(4)(क)(ii) से संबंधित विधेयक।
(iii) मंत्रिपरिषद की सलाह के बिना राज्यपाल की ओर से विवेकाधीन कार्रवाई करने की आवश्यकता उन स्थितियों में भी होती है, जब “राज्य मंत्रिपरिषद ने स्वयं को अक्षम या अयोग्य घोषित कर दिया हो”, या “विधि के शासन के पूर्ण रूप से विफल हो जाने की संभावना हो अथवा लोकतंत्र/लोकतांत्रिक सिद्धांतों के लिए गंभीर खतरा उत्पन्न हो गया हो।"
अनुच्छेद 31क कुछ ऐसी विधियों को संरक्षण प्रदान करता है जो राज्य द्वारा संपत्ति के अर्जन से संबंधित हैं, चाहे वे अनुच्छेद 14 और 19 के अंतर्गत प्रदत्त मूल अधिकारों से असंगत ही क्यों न हों।
अनुच्छेद 31ग किसी ऐसी विधि को संरक्षण प्रदान करता है जिसे राज्य के नीति निदेशक तत्वों को प्रभावी करने के उद्देश्य से बनाया गया हो।
अनुच्छेद 254 संसद द्वारा बनाई गई विधियों और राज्यों के विधान-मंडलों द्वारा बनाई गई विधियों के बीच असंगति से संबंधित है। अनुच्छेद 254(1) निर्दिष्ट करता है कि समवर्ती सूची में प्रगणित किसी विषय के संबंध में, संसद द्वारा बनाई गई कोई विधि, राज्य विधान-मंडल द्वारा बनाई गई किसी विधि पर अभिभावी होगी और विरोध (दोनों विधियों के उपबंधों में स्पष्ट असंगति) की मात्रा तक शून्य होगी। अनुच्छेद 254(2) उपर्युक्त उपबंध का अपवाद है। इसमें कहा गया है कि “जहां राज्य के विधान-मंडल द्वारा समवर्ती सूची में प्रगणित किसी विषय के संबंध में बनाई गई विधि में कोई ऐसा उपबंध अंतर्विष्ट है जो संसद द्वारा पहले बनाई गई विधि के या उस विषय के संबंध में किसी विद्यमान विधि के उपबंधों के विरुद्ध है तो यदि ऐसे राज्य के विधान-मंडल द्वारा इस प्रकार बनाई गई विधि को राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित रखा गया है और उस पर उसकी अनुमति मिल गई है तो वह विधि उस राज्य में अभिभावी होगी।”
अनुच्छेद 360(4)(क)(ii) के अनुसार, वित्तीय आपातकाल की स्थिति में संघ को यह अधिकार है कि वह राज्यों को निर्देश दे सकेगा कि राज्य विधान-मंडल द्वारा पारित किए जाने के पश्चात सभी धन विधेयकों या अन्य विधेयकों को राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित रखा जाए।
अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति की कार्रवाई: जब अनुच्छेद 200 के तहत किसी विधेयक को राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित रखा जाता है, तो उसके पश्चात अनुसरण की जाने वाली प्रक्रिया संविधान के अनुच्छेद 201 में वर्णित है।
अनुच्छेद 201: जब कोई विधेयक राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित रख लिया जाता है तब राष्ट्रपति घोषित करेगा कि वह विधेयक पर अनुमति देता है या अनुमति रोक लेता है:
परंतु जहां विधेयक धन विधेयक नहीं है, वहां राष्ट्रपति राज्यपाल को यह निदेश दे सकेगा कि वह विधेयक को, यथास्थिति, राज्य के विधान-मंडल के सदन या सदनों को ऐसे संदेश के साथ, जो अनुच्छेद 200 के पहले परंतुक में वर्णित है, लौटा दे और जब कोई विधेयक इस प्रकार लौटा दिया जाता है, तब ऐसा संदेश मिलने की तारीख से छह मास की अवधि के भीतर सदन या सदनों द्वारा उस पर तदनुसार पुनर्विचार किया जाएगा और यदि वह सदन या सदनों द्वारा संशोधन सहित या उसके बिना फिर से पारित कर दिया जाता है तो उसे राष्ट्रपति के समक्ष उसके विचार के लिए फिर से प्रस्तुत किया जाएगा।
अनुच्छेद 201 के तहत, राष्ट्रपति के पास दो विकल्प होते हैं: वह विधेयक को स्वीकृति दे सकता है अथवा स्वीकृति देने से इनकार कर सकता है। यदि राष्ट्रपति स्वीकृति देने से इनकार करता है, तो अनुच्छेद 201 के परंतुक के अनुसार, राष्ट्रपति राज्यपाल को निर्देश दे सकेगा कि वह विधेयक को राज्य विधान-मंडल को एक संदेश के साथ लौटा दे, जैसा कि अनुच्छेद 200 के पहले परंतुक में उल्लेख किया गया है। इसके पश्चात राज्य विधान-मंडल को राष्ट्रपति के सुझावों के दृष्टिगत उस विधेयक पर छह माह की अवधि के भीतर पुनर्विचार करना होगा।
पुनः अधिनियमित किए जाने पर, चाहे उसमें संशोधन किए गए हों या नहीं, विधेयक पुनः राष्ट्रपति के विचारार्थ प्रस्तुत किया जाता है। अनुच्छेद 201 राष्ट्रपति के लिए यह बाध्यकारी नहीं बनाता कि वह राज्य विधान-मंडल द्वारा पुनर्विचार के उपरांत प्रस्तुत किए गए विधेयक को अनिवार्य रूप से स्वीकृति दे। (यह अनुच्छेद 111 से भिन्न है, जिसके अंतर्गत यदि संसद किसी विधेयक पर पुनर्विचार कर उसे दोबारा राष्ट्रपति के समक्ष प्रस्तुत करती है, तो राष्ट्रपति के लिए उस विधेयक को स्वीकृति देना अनिवार्य होता है। इसी प्रकार, यह अनुच्छेद 200 से भी भिन्न है, जो राज्यपाल के समक्ष पुनः प्रस्तुत किए गए विधेयकों से संबंधित है।) संविधान में आरक्षित विधेयक पर राष्ट्रपति द्वारा कार्रवाई करने हेतु कोई समय-सीमा निर्धारित नहीं की गई है। यहां तक कि “यथाशीघ्र” जैसे शब्दों का भी प्रयोग नहीं किया गया है।
शेषः राज्यपाल द्वारा विधेयकों पर स्वीकृति रोकने की शक्ति पर उच्चतम न्यायालय का निर्णय—भाग-2