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क्या विधायक रिश्वतखोरी के आरोपों से उन्मुक्त (Immune) हैं?

भारत के उच्चतम न्यायालय (एससी) ने 04 मार्च, 2024 को एक ऐतिहासिक फैसले में यह निर्णय दिया कि संसद सदस्य (एमपी) और विधान सभा सदस्य (एमएलए) सदन में किसी विशेष रीति से वोट देने या भाषण देने हेतु रिश्वत लेने पर दांडिक अभियोजन चलाने से किसी भी प्रकार की उन्मुक्ति या छूट का दावा नहीं कर सकते। भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) डी.वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता में सात न्यायाधीशों की पीठ ने सर्वसम्मति से पी.वी. नरसिम्हा राव आदि बनाम राज्य (सीबीआई/एसपीई) आदि (1998) मामले में दिए गए फैसले को खारिज कर दिया, जिसमें यह पूर्वनिर्णय दिया गया था कि विधायकों को संसद एवं राज्यों की विधान सभाओं में उनके वोट तथा भाषण से संबद्ध मामलों में दांडिक कार्यवाही से उन्मुक्ति प्राप्त है।

इसके अलावा, इस निर्णय ने केरल राज्य बनाम के. अजिथ और अन्य (2021) मामले में निर्धारित सिद्धांतों की पुष्टि की, जहां उच्चतम न्यायालय ने प्रेक्षित किया कि, ‘‘विशेषाधिकार एवं उन्मुक्तियां देश की सामान्य विधि से छूट का दावा करने वाले साधन नहीं हैं, विशेष रूप से उस मामले में, जिसमें दंड विधि प्रत्येक नागरिक की कार्रवाई को नियंत्रित करती है”। दंड विधि के अनुप्रयोग से छूट का दावा करना उस विश्वास का उल्लंघन करना होगा जो विधि निर्माताओं और उसे अधिनियमित करने वाले के रूप में निर्वाचित प्रतिनिधियों के चरित्र को प्रभावित करता है।

पृष्ठभूमिः मामले जिन्होंने इस निर्णय की प्रकृति को निर्धारित किया

उच्चतम न्यायालय का निर्णय, रिश्वत लेने वाले विधायकों के लिए उन्मुक्ति का निरसन या समापन करने वाला, कई ऐतिहासिक मामलों पर आधारित है। इन मामलों ने भ्रष्टाचार, विधायी विशेषाधिकारों और मतदान में पारदर्शिता पर विधिक पूर्वनिर्णय या उदाहरण प्रस्तुत किए।

झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) रिश्वत मामले और पी.वी. नरसिम्हा राव आदि बनाम राज्य (सीबीआई/एसपीई) आदि मामले (1998) में, उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि रिश्वत लेने वाले सांसद अभियोजन से उन्मुक्त थे, भले ही उन्होंने संसद में मतदान या भाषण के माध्यम से अपने रिश्वत के समझौते का अनुसरण किया था। यह निर्णय संविधान के अनुच्छेद 105(2) की व्याख्या पर आधारित था।

केरल राज्य बनाम के. अजिथ और अन्य (2021) मामले में केरल के विधायकों पर 2015 में राज्य विधान सभा में तोड़-फोड़ करने का आरोप लगाया गया था। उन्होंने तर्क दिया कि उनके कार्य विधायी कार्यवाही का हिस्सा थे और उन्हें अनुच्छेद 194 के अंतर्गत संरक्षण दिया जाना चाहिए। हालांकि, उच्चतम न्यायालय ने फैसला सुनाया कि विधायी विशेषाधिकार हिंसा, भ्रष्टाचार या रिश्वतखोरी जैसे अवैध कृत्यों तक विस्तारित नहीं होते। इसने इस बात पर बल दिया कि विशेषाधिकारों का प्रयोग कानून तोड़ने के लिए एक बहाने के रूप में नहीं किया जा सकता है।

कुलदीप नायर बनाम भारत संघ और अन्य (2006) मामले में, उच्चतम न्यायालय ने राज्य सभा के चुनावों में खुले मतदान की परंपरा को मान्यता दी, और निर्णय दिया कि विधायकों को मतदान में गोपनीयता का पूर्ण अधिकार नहीं है। उच्चतम न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि विधायकों के लिए वोट देना एक लोक कर्तव्य है, न कि व्यक्तिगत अधिकार, भ्रष्टाचार रोकने के लिए मतदान में पारदर्शिता आवश्यक है, तथा रिश्वतखोरी एवं अनुचित प्रभाव, लोकतंत्र को जोखिम में डालते हैं।

सीता सोरेन मामले में उच्चतम न्यायालय का निर्णायक फैसला

2012 में, विधायक के विरुद्ध ‘वोट के लिए रिश्वत’ का मामला तब फिर से सामने आया, जब जेएमएम की विधायक सीता सोरेन पर उस वर्ष राज्य सभा चुनाव में एक निर्दलीय उम्मीदवार के पक्ष में वोट डालने के लिए रिश्वत लेने का आरोप लगाया गया। जांच के बाद केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) ने उनके विरुद्ध रिश्वत का मामला दर्ज कर लिया । उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 194(2) के तहत विधिक उन्मुक्ति का दावा करते हुए झारखंड उच्च न्यायालय (एचसी) के समक्ष अपने विरुद्ध दांडिक कार्यवाही को अमान्य करने की मांग की।

झारखंड उच्च न्यायालय ने 2014 में उनकी याचिका खारिज कर दी, जिसके बाद उन्हें राहत के लिए शीर्ष न्यायालय का रुख करना पड़ा। 2014 में उच्चतम न्यायालय की दो न्यायाधीशों की पीठ ने मामले की सुनवाई की और इसे तीन न्यायाधीशों की पीठ के पास भेज दिया। 2019 में उच्चतम न्यायालय की तीन न्यायाधीशों की पीठ, जिसमें तत्कालीन सीजेआई रंजन गोगोई, न्यायाधीश अब्दुल नजीर और न्यायाधीश संजीव खन्ना शामिल थे, ने अपील पर सुनवाई की तथा पाया कि पी.वी. नरसिम्हा राव मामले (1998) में दिया गया निर्णय प्रत्यक्षतः इस मामले से संबंधित था। पीठ ने इस तथ्य पर ध्यान दिया कि 1998 का निर्णय बहुत कम अंतर (पांच न्यायाधीशों के बीच 3:2 के अनुपात में) से सुनाया गया था और पाया कि इस मामले पर एक बड़ी पीठ द्वारा सुनवाई की जाने की जरूरत है, क्योंकि यह मामला सारवान है और आम लोगों के लिए महत्वपूर्ण है।

सितंबर 2023 में, सीजेआई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता में उच्चतम न्यायालय की पांच न्यायाधीशों की पीठ ने पाया कि 1998 के नरसिम्हा राव मामले में बहुमत द्वारा व्यक्त की गई राय में विचाराधीन अनुच्छेद 105(2) और 194(2) पर की गई व्याख्या में औचित्य का अभाव था। इसके बाद, पांच न्यायाधीशों की पीठ ने मामले को सुनवाई के लिए, यह मानते हुए कि यह मुद्दा राजनीति से संबद्ध है, एक बड़ी पीठ के पास भेज दिया। उच्चतम न्यायालय ने उल्लेख किया कि विधायी विशेषाधिकारों के पीछे का उद्देश्य विधायिका के सदस्यों को देश के सामान्य दांडिक विधान के अनुप्रयोग से उन्मुक्ति के मामले में कथित श्रेष्ठता देना नहीं था।


भारतीय संविधान के अनुच्छेद 105 और 194 के अनुसार विधायकों को अभियोजन से छूट

संविधान के भाग 5 के अंतर्गत अनुच्छेद 105, संसद के सदनों की तथा उनके सदस्यों और समितियों की शक्तियां, विशेषाधिकार आदि से संबंधित है। अनुच्छेद 105(2) उल्लेख करता है कि, ‘‘संसद में या उसकी किसी समिति में संसद के किसी सदस्य द्वारा कही गई किसी बात या दिए गए किसी मत के संबंध में उसके विरुद्ध किसी न्यायालय में कोई कार्यवाही नहीं की जाएगी और किसी व्यक्ति के विरुद्ध संसद के किसी सदन के प्राधिकार द्वारा या उसके अधीन किसी प्रतिवेदन, पत्र, मतों या कार्यवाहियों के प्रकाशन के संबंध में इस प्रकार की कोई कार्यवाही नहीं की जाएगी”। वास्तव में, यह प्रावधान सांसदों को अपने दायित्वों के निर्वहन के समय दिए गए किसी भी बयान या किए गए कार्य के लिए किसी भी विधिक कार्रवाई से संरक्षण प्रदान करता है। उदाहरण के लिए, सदन में दिए गए किसी भी बयान के लिए सांसद के विरुद्ध कोई मानहानि का वाद दायर नहीं किया जा सकता। इसके अलावा, गैर-सदस्य जैसे कि भारत के महान्यायवादी या कोई मंत्री जो सदस्य नहीं है, लेकिन सदन में वक्तव्य देता है, भी इस प्रावधान के अंतर्गत आते हैं।

अनुच्छेद 194, विधान-मंडलों के सदनों की तथा उनके सदस्यों और समितियों की शक्तियां, विशेषाधिकार आदि से संबंधित है। अनुच्छेद 194(2) के अनुसार, ‘‘राज्य के विधान-मंडल में या उसकी किसी समिति में विधान-मंडल के किसी सदस्य द्वारा कही गई किसी बात या दिए गए किसी मत के संबंध में उसके विरुद्ध किसी न्यायालय में कोई कार्यवाही नहीं की जाएगी और किसी व्यक्ति के विरुद्ध ऐसे विधान-मंडल के किसी सदन के प्राधिकार द्वारा या उसके अधीन किसी प्रतिवेदन, पत्र, मतों या कार्यवाहियों के प्रकाशन के संबंध में इस प्रकार की कोई कार्यवाही नहीं की जाएगी”।

विधायी विशेषाधिकार क्या हैं?

विधायी विशेषाधिकार संसद के दोनों सदनों और राज्यों के विधान-मंडलों, उनकी समितियों और उनके सदस्यों द्वारा प्राप्त विशेष अधिकार, उन्मुक्तियां एवं छूट हैं। भारत के संविधान ने इन विशेषाधिकारों को उन व्यक्तियों के लिए भी विस्तारित किया है जिन व्यक्तियों को सदन या उसकी किसी समिति की कार्यवाहियों में बोलने का और अन्यथा भाग लेने का अधिकार है, उदाहरण के लिए, भारत का महान्यायवादी।

विधायी विशेषाधिकारों की उत्पत्ति का समय उस समय को माना जा सकता है जब चार्टर ऐक्ट, 1833 द्वारा गवर्नर जनरल की परिषद में एक चौथा सदस्य शामिल किया गया था। भारत सरकार अधिनियम, 1935 ने विधायिका में इसके सदस्यों को अपने विचार प्रकट करने की स्वतंत्रता प्रदान की। वर्तमान में, संसद, उसकी समितियों तथा उसके सदस्यों के लिए संविधान में कुछ विशेषाधिकार निर्दिष्ट हैं। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 105 और अनुच्छेद 122 संसदीय विशेषाधिकारों का वर्णन करने वाले मुख्य अनुच्छेद हैं जबकि अनुच्छेद 194 और अनुच्छेद 212 राज्यों के विधान-मंडलों के विशेषाधिकारों से संबंधित हैं। अनुच्छेद 105 उल्लेख करता है कि ‘‘संसद में वाक्-स्वातंत्र्य होगा”। अनुच्छेद 122 गारंटी देता है कि, ‘‘संसद की किसी कार्यवाही की विधिमान्यता को प्रक्रिया की किसी अभिकथित अनियमितता के आधार पर प्रश्नगत नहीं किया जाएगा”। अनुच्छेद 194 ‘‘प्रत्येक राज्य के विधान-मंडल के सदस्यों के लिए वाक्-स्वातंत्र्य होगा” प्रदान करता है। अनुच्छेद 212 गारंटी देता है कि, ‘‘राज्य के विधान-मंडल की किसी कार्यवाही की विधिमान्यता को प्रक्रिया की किसी अभिकथित अनियमितता के आधार पर प्रश्नगत नहीं किया जाएगा”। अनुच्छेद 361 के अनुसार, राष्ट्रपति अथवा राज्य का राज्यपाल अपने पद की शक्तियों के प्रयोग और कर्तव्यों के पालन के लिए या उन शक्तियों का प्रयोग और कर्तव्यों का पालन करते हुए अपने द्वारा किए गए या किए जाने के लिए तात्पर्यित किसी कार्य के लिए किसी न्यायालय को उत्तरदायी नहीं होगा। सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 135क विधायकों को विधायी सत्रों के दौरान और सत्र से पहले और बाद में निर्दिष्ट अवधि के लिए सिविल प्रक्रियाओं के अधीन गिरफ्तारी से उन्मुक्ति प्रदान करती है।

इन विशेषाधिकारों को विशेष प्रावधान माना जाता है और अंतर्विरोध की स्थिति में इनका प्रभाव सर्वोपरि होता है। ये विशेषाधिकार प्रदान करने का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना था कि सांसद और विधायक बिना किसी बाधा के अपने दायित्वों का निर्वहन ठीक से कर सकें—जो विधायिका की लोकतांत्रिक कार्यवाही के लिए आवश्यक है। इन विशेषाधिकारों के बिना, सदन न तो अपने अधिकार, गरिमा एवं सम्मान को बनाए रख सकता है और न ही अपने सदस्यों को उनके संसदीय उत्तरदायित्वों के निर्वहन में किसी भी बाधा से संरक्षण दे सकता है।

हालांकि, सदस्यों का व्यवहार और भाषण सदन के नियमों द्वारा नियंत्रित होते हैं। विधायी विशेषाधिकार सदस्यों को अपनी इच्छानुसार कार्य करने की निर्विवाद स्वतंत्रता नहीं देते। बल्कि, यह व्यष्टिगत रूप से उन सदस्यों को केवल उसी सीमा तक प्राप्त है, जहां तक सदन के लिए  बिना किसी बाधा के स्वतंत्र रूप से अपना कार्य करने हेतु इसका होना अनिवार्य है।


पी.वी. नरसिम्हा राव निर्णय को पलटनाः उच्चतम न्यायालय की टिप्पणी

पी.वी. नरसिम्हा राव मामले (1998) में दिए गए निर्णय के औचित्य की जांच करने के लिए गठित उच्चतम न्यायालय की सात न्यायाधीशों की पीठ ने पाया कि यह निर्णय इस मायने में विरोधाभासी था कि जब कोई विधायक रिश्वत लेता है और सहमति के अनुसार मतदान करता है तो उसे उन्मुक्ति मिल जाती है। हालांकि, यदि कोई विधायक रिश्वत लेने के लिए सहमत हो जाता है लेकिन अंततः स्वतंत्र रूप से मतदान करने का निर्णय लेता है, तो उस पर मुकदमा चलाया जाएगा।

पी.वी. नरसिम्हा राव मामले में अल्पमत की राय (जिसमें 3:2 से खंडित निर्णय दिया गया था) ने सदन में रिश्वत के आरोपों से संबंधित मामलों में किसी विशेष रीति से भाषण देने या मतदान करने के लिए अनुच्छेद 105(2) या 194(2) के अधीन दी गई उन्मुक्ति को बढ़ाने के विरुद्ध दलीले पेश की थी। हालांकि, अधिकांश न्यायाधीशों ने, वोट के लिए रिश्वत के अपराध की गंभीरता के बारे में जागरूक होने के बावजूद, उपर्युक्त उपबंधों के तहत उन्मुक्ति को अक्षुण्ण रखने का विकल्प चुना। ऐसा इसलिए था क्योंकि, उनकी राय में, न्यायालय के किसी भी दृष्टिकोण से संवैधानिक उपबंधों की संकीर्ण व्याख्या हो सकती है, जिसके परिणामस्वरूप ‘‘संसदीय भागीदारी और बहस” की गारंटी की क्षति हो सकती है।

मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने उल्लेख किया कि अनुच्छेद 105 और 194 के अंतर्गत संसदीय विशेषाधिकारों की गारंटी देने का प्रयोजन एक ऐसा परिवेश बनाना था जिसमें विधायिका में बहस और विचार-विमर्श हो सके। हालांकि, ऐसा प्रयोजन तब समाप्त हो जाता है जब किसी सदस्य को रिश्वत देने के बाद किसी विशिष्ट रीति से वोट देने या बोलने के लिए प्रेरित किया जाता है। न्यायालय ने संसदीय विशेषाधिकारों में से किसी के लिए दावा करने हेतु द्विस्तरीय परीक्षण की अनुशंसा की। सबसे पहले, किसी भी विशेषाधिकार का दावा सदन की सामूहिक कार्यवाही के लिए प्रासंगिक होना चाहिए। दूसरा, इसकी प्रासंगिकता एक विधायक के आवश्यक कर्तव्यों के निर्वहन से संबद्ध होनी चाहिए।

सीजेआई चंद्रचूड़ ने निर्णय को रद्द करते हुए तर्क दिया कि पी.वी. नरसिम्हा राव (पूर्वोल्लिखित) मामले में बहुमत का निर्णय, जो विधायिका के किसी सदस्य, जिसने वोट देने या बोलने के लिए कथित तौर पर रिश्वत ली है, को अभियोजन से उन्मुक्ति देता है तो उसका जनहित, लोक जीवन में शुचिता एवं संसदीय लोकतंत्र पर व्यापक प्रभाव पड़ता है। यदि निर्णय पर पुनर्विचार नहीं किया गया तो इस न्यायालय द्वारा त्रुटि को जारी रखने की अनुमति देने का गंभीर जोखिम हो सकता है। उच्चतम न्यायालय ने विचार किया कि संसदीय विशेषाधिकारों का दावा संवैधानिक मापदंडों के अनुरूप होना चाहिए।

निर्णय में आगे स्पष्ट किया गया कि “अनुच्छेद 105(2) और तदनुरूप अनुच्छेद 194(2) के उपबंध के अंतर्गत विधायकों को  रिश्वतखोरी से उन्मुक्ति प्राप्त नहीं है क्योंकि रिश्वतखोरी में शामिल सदस्य ऐसा अपराध करता है जो वोट डालने या वोट कैसे डाला जाए, इस पर निर्णय लेने की क्षमता के लिए आवश्यक नहीं है। सदन या समिति में भाषण के संबंध में रिश्वतखोरी पर भी यही सिद्धांत लागू होता है’’ न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि रिश्वतखोरी का अपराध उस समय पूरा हो जाता है जब विधायक रिश्वत स्वीकार करता है, चाहे उसके बाद रिश्वत लेने वाले द्वारा वांछित रीति से मतदान या भाषण दिया जाए अथवा नहीं। इसी प्रकार से, रिश्वत की पेशकश या प्राप्ति का स्थान मायने नहीं रखता। निर्णय में इसके बाद कहा गया कि भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 7 का प्रथम स्पष्टीकरण ऐसे निर्वचन को दृढ़ता प्रदान करता है क्योंकि इसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि ‘‘किसी व्यक्ति से अनुचित लाभ प्राप्त करने, स्वीकार करने या प्राप्त करने का प्रयास करने” से ही अपराध का गठन होगा, भले ही किसी लोक सेवक द्वारा लोक कर्तव्य का अनुचित पालन न किया गया हो।

इस संदर्भ में यह प्रश्न उठा कि क्या उच्चतम न्यायालय का हस्तक्षेप उचित था, क्योंकि किसी विधायक के विरुद्ध भ्रष्टाचार के आरोपों को सदन द्वारा विशेषाधिकार हनन माना जाता है, जिसके परिणामस्वरूप दंड दिया जाता है। न्यायालय ने तर्क दिया कि यद्यपि किसी दंडनीय अपराध के लिए वाद चलाने का न्यायालय का अधिकार सदन के अनुशासन के उल्लंघन के लिए कार्यवाही करने के अधिकार से पृथक है, तथापि ‘‘विधायिका के विशेष सदस्यों के विरुद्ध विशेषाधिकारों के दुरुपयोग की संभावना को न तो बढ़ाया गया है और न ही कम किया गया है, क्योंकि विधान-मंडल के किसी ऐसे सदस्य पर वाद चलाने के लिए न्यायालय की अधिकारिता को मान्यता दी गई है, जिस पर रिश्वतखोरी के कृत्य में लिप्त होने का आरोप है”।

राज्य सभा चुनावों में विधायी विशेषाधिकारों के प्रयोग के प्रश्न पर, न्यायालय ने स्पष्ट किया कि विधायी विशेषाधिकारों के बारे में निर्णय में उल्लिखित सिद्धांत राज्य सभा के चुनावों के साथ-साथ देश के राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति की नियुक्ति के चुनावों पर भी समान रूप से लागू होंगे। तदनुसार, इसने कुलदीप नायर बनाम भारत संघ और अन्य (2006) मामले में की गई टिप्पणियों को रद्द कर दिया, जिसमें कहा गया था कि राज्य सभा के चुनाव विधायिका की कार्यवाही नहीं हैं, बल्कि केवल मताधिकार का प्रयोग हैं और इसलिए, अनुच्छेद 194 के तहत संसदीय विशेषाधिकारों के दायरे से बाहर हैं।

निष्कर्ष

यह निर्णय प्रतिनिधिक लोकतंत्र के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। सीजेआई ने स्पष्ट रूप से इस पर बल दिया कि ‘‘विधायिका के सदस्यों द्वारा किया जा रहा भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी भारतीय संसदीय लोकतंत्र की नींव को कमजोर कर रही हैं। यह संविधान के आकांक्षात्मक और विचारशील आदर्शों के लिए हानिकारक है और एक ऐसी राजनीति का निर्माण करती है जो नागरिकों को एक जिम्मेदार, उत्तरदायी और प्रतिनिधिक लोकतंत्र से वंचित करती है”।

हालांकि न्यायपालिका को अपनी गलती सुधारने में लगभग पच्चीस साल लग गए, लेकिन यह फैसला भारतीय लोकतंत्र के भविष्य के लिए सही दिशा में लिया गया है। विधायी सदस्यों के आचरण में गिरावट और संसद (लोकतंत्र के मंदिर) में धनबल के बढ़ते प्रभाव के कारण यह फैसला बहुत जरूरी था। यह फैसला देश में संसदीय लोकतंत्र को मजबूत करेगा और भारत के संविधान की आकांक्षाओं के अनुरूप एक जिम्मेदार राजनीति का निर्माण करेगा।

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